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________________ प्रेमी-अभिनंदन ग्रंथ दिगम्बर-जैन-समाज का बहुत ही दुर्लक्ष्य है । वडी मुश्किल से उसके लिए रुपया मिलना है । प्राचान जन-शतहास का अध्ययन और इन ग्रन्थो के सम्पादन में दिलचस्पी के कारण दादा को सस्कृत, प्राकृत और अपभ्रम भाषाग्रो का इतना काफी ज्ञान हो गया है कि इन भाषाओ के बडे-बडे विद्वान् उनकी वाक मानते है । ब्रज भाषा का सुन्दर ज्ञान तो दादा को अपने कवि-जीवन मे ही है । १८ 'जैन - हितैषी' का सम्पादन करते हुए और जैन -पुस्तको का प्रकाशन करने हुए दादा हमेगा बँगला, मराठी, गुजराती श्रौर हिन्दी की बाहरी पुस्तके बहुत कुछ पढा करते थे । इन सब के साहित्य को पढकर उन्हे यह बात बहुत खटकती थी कि हिन्दी में अच्छे ग्रन्थो का अभाव है और ये भाषाएँ बरावर आगे वढ रही है । उस समय उनके पढने म प० महावीर प्रसाद जी द्विवेदी द्वारा अनुवादित जॉन स्टुआर्ट मिल का प्रसिद्ध ग्रन्थ 'लिबर्टी' आया, जो 'स्वाधीनता' के नाम से स्वर्गीय प० माघव राव सप्रे की 'हिन्दी -ग्रन्थ प्रकाशन -मडली' से प्रकाशित हुआ था । उसे पढकर दादा की इच्छा हुई कि इसकी सौ-दोमो प्रतियां लेकर जैनियो मे प्रचार करे, ताकि उनकी कट्टरता कम हो और वे विचारस्वातन्त्र्य का महत्त्व समझे । पर तलाश करने पर मालूम हुआ कि वह ग्रन्थ अप्राप्य है । तव इसके लिए उन्होने द्विवेदी जी को लिखा । उस समय तक दादा को गुमान भी नही था कि वे किसी दिन हिन्दी के भी प्रकाशक बनेगे । उन्होने तो अपने कार्यक्षेत्र को जैन ग्रन्थो के प्रकाशन और जैन समाज की मेवा तक ही सीमित रख छोड़ा था । द्विवेदीजीने बताया कि गवर्नमेंट देशी भाषात्रो मे इस तरह का साहित्य छापना इप्टकर नही समझती । इसलिए इसके प्रकाशन मे जोखम है । पर दादा राजनैतिक साहित्य खूव पढते थे और उन्हे वडा जोग या । उन्होने उसे छापने का बीडा उठा लिया | प्रेस सम्बन्धी कठिनाइयाँ भाई, पर वे हल हो गई और द्विवेदीजी के आशीर्वाद और उनकी 'स्वाधीनता' के प्रकाशन से ता० २४ सितम्बर १९१२ को 'हिन्दी - ग्रन्थ- रत्नाकर -ग्रन्थमाला' का जन्म हुआ । 'हिन्दी - ग्रन्थ - रत्नाकर' सबसे पहली ग्रन्थमाला थी, जो हिन्दी मे प्रकाशित हुई । मराठी वगैरह भाषाओ मे उस समय कई ग्रन्थमालाएँ निकल रही थी । उन्ही के अनुकरण में इन्होने भी स्थायी ग्राहक की फीस आठ आना रक्खी, जो पोस्टेज वढ जाने के कारण वाद में एक रुपया कर दी गई। यह ग्रन्थ-माला हिन्दी में सब तरह का माहित्य देने के उद्देश्य से निकाली गई थी । उस समय लोगो मे यह भावना थी कि हिन्दी मे जो भी नवीन साहित्य छपे, मव खरीदा जाय, क्योकि उस समय हिन्दी में नवीन साहित्य था ही कितना । उस समय लोगो में साहित्य को अवलम्वन देने का भाव भी था । इसलिए धीरे-धीरे माला के डेढ दो हजार ग्राहक आसानी से हो गये और हरेक पुस्तक का पहला सस्करण दो हजार का निकलने लगा । लगभग डेढ हज़ार तो पुस्तक निकलते ही चली जाती थी, वाकी धीरे-धीरे विकती रहती थी । समालोचना का उन दिनो यह असर था कि 'सरस्वती' पुस्तक की सौ- डेढ सौ प्रतियाँ तुरन्त ही विक जाती थी और विज्ञापन का भी तत्काल असर होता था । महायुद्ध एक अच्छी समालोचना निकलते ही. जमाने में बारह ग्राने पौण्ड का कागज खरीद कर भी ग्रन्थमाला वरावर चालू रक्खी गई। पर इस जमाने का लाभ के दादा वहुत समय तक और पूरा न ले सके। कई सस्त और लम्बी बीमारियाँ उन्हें झेलनी पडी । साथ ही उन्हें जैनसमाज की और साहित्य की सेवा करने की घुन ज्यादा थी । ज्यादा वक्त ऐतिहासिक लेस लिखने और 'जैन- हितैषी' के सम्पादन में खर्च होता था । जितना परिश्रम और खर्च उन्होने 'जैन - हितैषी' के सम्पादन में किया, उसमे श्राधे परिश्रम में हिन्दी का अच्छे से अच्छा मासिक पत्र चलाया जा सकता था और सम्पादक और लेखक के तौर पर वडा कमाया जा सकता था। सिवाय इसके विज्ञापन का एक बहुत सुन्दर साधन भी वन सकता था । पर इस सव समाज के लिए की गई मेहनत का परिणाम क्या हुआ है ? दादा तब उग्र और स्वतन्त्र मिजाज के व्यक्ति थे। किसी से भी दवना उनके स्वभाव के खिलाफ था और ऐसी व्यग और कटाक्ष भरी लेखनी थी कि जिसके खिलाफ लिखते थे उसकी शामत श्रा जाती थी। इसके सिवाय सेठ लोगो के वे हमेशा खिलाफ लिखते थे। पहले 'जैन-हितैषी' की ग्राहक-सख्या खूब बढी । इतनी बढी कि जैन समाज मे किसी भी सामाजिक पत्र की कभी उतनी नही हुई । दादा के विचार प्रत्यन्त सुधारक थे और छापे का प्रचार, विजातीय विवाह वगैरह के कई श्रान्दोलन उसमे शुरू
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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