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________________ हिंदी-प्रथ-रत्नाकर' और उसके मालिक किये, पर जब उन्होने विधवा-विवाह के प्रचार का आन्दोलन उसमें शुरू किया तो उसका चारो ओर से बहिष्कार प्रारम्भ हुआ। उसके विरुद्ध प्रचार करने के लिए कई उपदेशक रक्खे गये। इन सामाजिक लेखो के अलावा उसमे ऐतिहासिक लेख वहुत होते थे, जिनकी कीमत उस समय नही आंकी गई, पर उनके लिए आज उसके पुराने अको के . लिए सैकडो देशी और विलायती सस्थाएं दस गुनी कीमत देने को राजी है, लेकिन आज वे बिलकुल ही अप्राप्य है। विधवा-विवाह के प्रचार के लेख ही दादा ने नहीं लिखे, बल्कि अनेक विधवा-विवाहो में वे शामिल हुए और अपने भाई का भी विधवा-विवाह उन्होने कराया। परिणाम यह हुआ कि उन्हें कई जगह जाति से वहिप्कृत होना पडा तथा समाज में उनका सम्मान विलकुल ही कम हो गया, पर इससे वे जरा भी विचलित नहीं हुए। आखिर समाज को ही उनसे हार माननी पडी। पर हाँ, वीमारी और घाटे के सवव उस समय पत्र वन्द कर देना पड़ा। सब मिलाकर वह पत्र ग्यारह वर्ष चला। उसका सारा खर्च और घाटा 'जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय' खुद ही बर्दाश्त करता रहा। किमी से एक पैसे की सहायता नही ली। स्थायी ग्राहक बनने का सिलसिला तभी तक रहा, जबतक कि डाक-व्यय की दर कम रही। पहले एक-दो रुपये तक की वीपियो को रजिस्टर कराने की जरूरत नहीं होती थी और इसलिए जहां भी किसी एकाध रुपये की पुस्तक का भी विज्ञापन ग्राहक देखता था या समालोचना पढता था कि तुरन्त कार्ड लिखकर आर्डर दे देता था और बहुत कम खर्च में उसे घर बैठे पुस्तक मिल जाती थी। उस जमाने में इतने आर्डर आते थे कि उनकी पूर्ति करना मुश्किल था और छगनमल जी अन्य प्रकाशको की पुस्तके बेचने के लिए रखते नहीं थे। फिर भी साल में करीव पांच-छ हजार वीपियाँ जाती थी। यह वात 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' के पुराने रजिस्टरो से बखूबी सिद्ध की जा सकती है कि जिस अनुपात में डाक-व्यय की दर वढती गई, ठीक उसी अनुपात में जाने वाली वीपियो की सख्या घटती गई। दादा का ख्याल है कि अगर हमे देश मे स्थायी साक्षरता और सस्कृति का विस्तार करना है तो सबसे पहले पुस्तको के लिए पोस्टेज की दर कम कराने का आन्दोलन करना चाहिए । कांग्रेस का ध्यान भी इस तरफ पूरी तरह से नहीं खीचा गया है। चिट्ठियो और कार्यों पर डाक-महसूल की दर भले ही कम न हो, पर कितावो पर जरूर ही कम हो जानी चाहिए। अगर यह नहीं होगा तो कोई भी प्रान्दोलन सफल नहीं हो सकता। चाहे समाजवाद हो, चाहे राष्ट्रवाद हो और चाहे गाधीवाद, जवतक उसका साहित्य सस्ते पोस्टेज के द्वारा घर-घर न पहुँच सकेगा तवतक किसी मे सफलता न होगी। कितावो की कीमत सस्ती रखकर कुछ दूरी तक साहित्य के प्रचार में सहायता पहुंचाई जा सकती है, पर वह अधिक नहीं। एक रुपये की पुस्तक मंगाने पर अगर आठ-दस आने पोस्टेज में ही लग जावें तो पुस्तक के सस्तेपन से उसकी पूर्ति कैसे की जा सकती है ? ऐसी परिस्थिति मे तो सभी यह सोचेगे कि पुस्तक फिर कभी मंगा ली जायगी और फिर कभी का समय नहीं पाता। हाल मे ही 'मॉडर्न-रिव्यू' मे जव रामानन्द वाबू का पोस्टेज के बारे मे अमेरिका के प्रेसीडेंट रुजवेल्ट की डिक्री पर नोट पढा तब मुझे इसका ख्याल हुआ कि अमेरिका जैसे धनवान देश में किताबो के लिए डाकखाने ने पोस्टेज का रेट फी पौण्ड तीन पैसा (२ सेंट) रख छोडा है तब हिन्दुस्तान का चार पाने फी पौण्ड से ऊपर का रेट • कितना ज्यादा है। मेरे ख्याल से इसके लिए अगर एक बार सत्याग्रह आन्दोलन भी छेडा जाय तो भी उचित ही है। - पोस्टेज के रेट बढने पर धीरे-धीरे हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर-सीरीज़ के और उसके अनुकरण मे निकलने वाली अन्य मालाओ के ग्राहक टूट गये । वाद को सव ने बहुत कोशिश की, नियमो मे वहुत-सी ढील डाली गई, पर कोई स्थायी लाभ नही हुआ। इस तरह पुस्तक-बिक्री का पुराना सगठन नष्ट हो गया और नया पैदा भी नहीं होने पाया । साहित्यिक पुस्तको की विक्री के लिए बडे-बडे शहरो में भी अवतक कोई उचित प्रबन्ध नही हो सका है और होना वडा मुश्किल है, क्योकि साहित्यिक पुस्तको की इतनी विक्री अभी बहुत कम जगह है कि उससे किसी स्थानीय पुस्तकविक्रेता का पेट भर सके। फिर कमीशन की नियमितता ने इसकी जो कुछ सम्भावना थी उसे भी नष्ट कर दिया है। स्कूली पुस्तकें बेचने वाले विक्रेता सब जगह है, धार्मिक और बाज़ारू पुस्तके बेचने वाले भी है, पर वे साहित्यिक पुस्तकें रखना पसन्द नहीं करते ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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