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________________ ''हंदी -थ- रत्नाकर' और उसके मालिक १७ - समाज का जितना अधिक उपकार सेठ माणिकचन्द्र जी कर गये, उतना गायद ही किसी एक व्यक्ति ने किया हो । यह उपकार उन्होने कोई धर्मादा सस्थाओ को बहुत-सा रुपया देकर किया हो, सो वात नही । उन्होने जितनी सस्थाएँ क़ायम की उनका बहुत मुन्दर प्रवन्ध करके ही उन्होने वह कार्य किया । जितना काम उन्होने एक रुपये के खर्च मे किया, उतना दूसरे धनवान् व्यक्ति सौ रुपया खर्च करके भी न कर पाये । इम मफलता का रहस्य उनमे कार्यकर्ताओ के चुनाव की जो जवरदस्त गक्ति थी, उसमें निहित है। साथ ही और लोग जहाँ दान मे अपनी सारी सम्पत्ति का एक छोटा हिस्सा ही देते हैं वहाँ वे अपनी लगभग मारी सम्पत्ति दान में दे गये । वम्बर्ड का हीराबाग, जिसमें कि शुरु आज तक 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय' का दफ्तर रहा है, उनके दिये दान की एक ऐसी ही सस्था है । से जैन-ग्रन्थो के प्रकाशन में वे इम रूप में सहायता देते थे कि जो भी कोई उत्तम ग्रन्थ कही से प्रकाशित होता था, उसकी दो-तीन मौ प्रतियाँ एक साथ तीन वीयाई कीमत में खरीद लेते थे । प्रत्येक प्रकाशक के लिए यह बहुत काफी सहायता थी, जिसमे छपाई का करीब सारा खर्च निकल आता या । दादा को भी इस तरह काफी सहायता मिली । पुस्तक - प्रकाशन में सहायता का यह ढग इतना सुन्दर है कि दादा का कहना है कि अगर हिन्दी में उत्तम पुस्तको के प्रकाशन को प्रोत्साहन देने के लिए यह ढग अख्तियार किया जाय तो हिन्दी - माहित्य की बहुत कुछ कमी वात-की-वात दूर हो सकती है । इसमें लेखक और प्रकाशक दोनो को उत्साह मिलता है । सिर्फ लेखको को पुरस्कार देने की अथवा प्रकाशन के लिए नई प्रकाशन-मस्थाएँ खोलने की जां रीति है, उसमें खर्च के अनुपात से लाभ नही होता | हिन्दी में अविकारी लेखको का अभाव नही हैं, पर प्रकाशको का ज़रूर प्रभाव है । जवनक विकने की आशा न हो तबतक प्रकाशक ग्रच्छी पुस्तके निकालते सकुचाते हैं । पुस्तक अच्छी होगी तो लेखक ज़रूर पुरस्कार प्राप्त करेगा, पर प्रकाशक को उसमे क्या लाभ होगा ? यूरोप की तरह यहाँ तो पुरस्कार की बात सुनकर उस लेखक की पुस्तक लेने को तो दौडेंगे नही । ऐसी परिस्थिति में या तो लेखक को स्वय ही प्रकाशक वनकर पुस्तक छपानी पडती है और यह वह नभी करता है जव कि उसे पुरस्कार प्राप्त करने का निश्चय होता है और या किसी प्रकाशक को किसी तरह राज़ी कर पाता है । पर प्रकाशक इस तरह राजी नही होते । वे हमेशा कुछ टेढे तरीके से लाभ उठाने की बात सोचते हैं और प्राय इस तरह कालेजो के प्रोफेसरों की और टेक्स्ट- चुक कमेटी के मैम्बरो की ही कितावे छप पाती है । अन्य योग्य लेखक यो ही रह जाते है । नई सार्वजनिक प्रकाशन-सस्थाएँ खोलने पर प्रकाशन तो पीछे शुरू होता है, पर आफिस श्रादि का खर्च पहले ही होने लगता है और जितना खर्च वास्तविक कार्य के पीछे होना चाहिए, उसमे ज्यादा खर्च ऊपर के ग्राफिम आदि के ऊपर होता है और कही उसने पत्र निकाला और प्रेस किया तो समझिये कि वह विना मौत ही मर गई । पुरानी प्रकाशन -सस्याओ के होते हुए नई प्रकाशन सस्थाएँ पैदा करना दोनो को भूखा मारने के वरावर होता है और असगठित रूप से नये-नये प्रकाशक रोज होने से न उनकी पुस्तको की बिक्री का ठीक संगठन ही होता है और न पढने वाली को पुस्तकें मिल पाती है । स्वर्गीय सेठ माणिकचन्द्र जी के प्रति दादा का जो कृतज्ञता का भाव था, उससे प्रेरित होकर उनके स्वर्गवास के वाद उन्होने 'माणिकचन्द्र- दिगम्बर जैन ग्रन्थ- माला' नाम की सस्था खडी की, जिसका कार्य मस्कृत, प्राकृत र अपभ्रग भापाग्रो के लुप्तप्राय प्राचीन जैन-ग्रन्थ सुसम्पादित रूप मे प्रकाशित करना है । इस समय तक इसमे सिर्फ are हज़ार का चन्दा हुआ है और चालीस ग्रन्थ निकल चुके है। दादा इस माला के प्रारम्भ से ही अवैतनिक मन्त्री रहे है और उसका कार्य इस बात का उदाहरण रूप रहा है कि किस प्रकार कम-से-कम रुपये में अधिक-से-अधिक र अच्छे से अच्छा काम किया जा सकता है, क्योकि ग्रन्थो की कीमत लागत मात्र रक्खी जाने के कारण और एक-मुश्त सौ रुपया देने वालो को मारे ग्रन्थ मुफ्त दिये जाने के कारण विक्री के रूप में मूल रकम वसूल करने की श्रागा ही नही की जा सकती। बहुत से ग्रन्थो का सम्पादन दादा ने खुद ही किया है और बहुतो का दूसरो के साथ और शेष का ग्रच्छे आदमियों को चुनकर करवाया है। पहले तो इस कार्य के योग्य विद्वानों का ही प्रभाव था। बाद मे जब विद्वान मिलने रुपयो का प्रभाव हो गया। यहाँ इतना कहना जरूरी है कि अपने प्राचीन ग्रन्थ प्रकाशित करने की थोर ३
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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