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________________ ३४२ प्रेमी - श्रभिनदन- प्रथ वस्तु असत् है । देवदत्त का पुत्र दुनिया भर के मनुष्यो का पुत्र नही और न देवदत्त ससार भर के पुत्रो का पिता है । यदि देवदत्त अपने को ससार भर के पुत्रो का पिता कहने लगे तो उस पर वह मार पडे जो जीवन भर भुलाये से भी न भूले। क्या इसमे हम यह नतीजा नही निकाल सकते है कि देवदत्त पिता है और नहीं भी है । प्रत ससार में जो कुछ 'है', वह किसी अपेक्षा मे नही भी है । सर्वथा सत् या सर्वथा श्रसत् कोई वस्तु हो नही सकती । इसी अपेक्षावाद का सूचक " स्यात्" गब्द है जिसे जैन तत्त्वज्ञानी अपने वचन व्यवहार में प्रयुक्त करता है । उसी को दार्शनिक भाषा में "स्यात् सत्" और " स्यात् असत्" कहा जाता है । हम ऊपर लिखा है कि शब्द की प्रवृत्ति वक्ता के अधीन है, अत प्रत्येक वस्तु में दोनो धर्मों के रहने पर भी वक्ता अपने अपने दृष्टिकोण से उसका उल्लेख करते हैं । जैसे दो आदमी सामान खरीदने के लिए बाज़ार जाते है । वहाँ किसी वस्तु को एक अच्छी वतलाता है, दूसरा उसे बुरी बतलाता है । दोनो मे बात वढ जाती है । तब दुकानदार या कोई राहगीर उन्हें समझाते हुए कहता है, 'भई, क्यो झगडते हो ? यह चीज अच्छी भी है और बुरी भी है । तुम्हारे लिए अच्छी हैं और इनके लिए बुरी है। अपनी अपनी निगाह ही तो है' । यह तीनो व्यक्ति तीन तरह का वचन व्यवहार करते है - पहला विधि करता है, दूसरा निषेध और तीसरा दोनो । वस्तु के उक्त दोनो धर्मों को यदि कोई एक साथ कहने का प्रयत्न करे तो वह कभी भी नही कह सकता । क्योकि गब्द एक समय में एक ही धर्म का कथन कर सकता है। ऐसी दशा मे वस्तु श्रवाच्य कही जाती है । उक्त चार वचन व्यवहारो को दार्शनिक भाषा मे 'स्यात् सत्', 'स्यात् असत्', 'स्यात् सदसत्' और 'स्यादवक्तव्य' कहते है । सप्तभगी के मूल यही चार भग है । इन्ही में से चतुर्थ भग के साथ क्रमश पहले, दूसरे और तीसरे भग को मिलाने से पाँचवाँ छठा और सातवाँ भग वनता है । किन्तु लोक व्यवहार में मूल चार तरह के वचनो का ही व्यवहार देखा जाता है । सप्तभगी का उपयोग सप्तभगीवाद का विकास दार्शनिक क्षेत्र मे हुआ था, इसलिए उसका उपयोग भी वही हुआ हो तो कोई आश्चर्य नही है । उपलब्ध जैन वाड्मय मे, दार्शनिक क्षेत्र मे सप्तभगीवाद को चरितार्थ करने का श्रेय स्वामी समन्तभद्र को ही प्राप्त है । किन्तु उन्होने 'प्राप्तमीमासा' में अपने समय के सदैकान्तवादी साख्य, असदैकान्तवादी माध्यमिक, सर्वथा उभयवादी वैशेषिक और अवाच्यैकान्तवादी बौद्ध के दुराग्रहवाद का निराकरण करके मूल चार भगो का ही उपयोग किया है। और शेष तीन भगो के उपयोग करने का सकेत मात्र कर दिया है। 'आप्तमीमासा' पर 'अप्टशती' नामक भाप्य के रचयिता श्री अकलकदेव ने उस कमी को पूरा कर दिया है । उनके मत से, शकर का अनिर्वचनीयवाद सदवक्तव्य, वौद्धो का अन्यापोहवाद असदवक्तव्य, और योग का पदार्थवाद सदसद वक्तव्य कोटि मे सम्मिलित होता है ।" सात भगो मे सकलादेश और विकलादेश का भेद सप्नभगीवाद के सकलादेशित्व श्रौर विकलादेशित्व की चर्चा हम 'प्रमाण वाक्य और नय वाक्य' मे कर है और यह भी सि श्राये है कि इसमें श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनो एक मत है, किन्तु श्वेताम्बर साहित्य मं एक ऐसे मत का उल्लेख मिलता है जो मात भगो में मे सत्, प्रसत् और अवक्तव्य इन तीनो भगो को सकलादेशी "शेयभगाश्च नेतव्या यथोक्तनययोगत " । प्राप्तमीमासा विशेष जानने के लिए देखो प्रष्टसहस्री, पृ० १३६ ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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