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________________ स्याहाद और सप्तभंगी ३४३ तथा शेष चार भगो को विकलादेशी स्वीकार करता है। विगेपावश्यक भाष्यकार' इमी मत के पोपक जान पडते है। विन्नु उनका यह म्वतन्त्र म्न है या उन्होंने अपने पूर्ववर्ती किमी प्राचार्य मे लिया है, इस विषय में हम अभी कुछ नहीं कह सकते। सन्मति नर्क में टीकाकार अभयदेवमूनि उक्त मन का उल्लेख 'इनि केचिन्' के नाम से करते है। वे लिन्न है-'उक्त तीन मग गौणता और प्रवानना ने सन्न वात्मक एक वन्नु का प्रतिपादन करते हैं, इमलिए नकलादा है और मेष चार भग भी यद्यपि सक्न धर्मान्मक वस्तु का प्रतिपादन करते हैं फिर भी साग वस्तु के वोवक होने में विक्लादेश कहे जाते है ऐमा किन्ही का मत है। मालून नहीं, इस मन के अनुयायी प्रमाण मनभगी और नयमनमगी को मानते थे या नहीं? दिगम्बगवार्यों मे ने क्मिी ने नी इन मत न उल्लेख तक नहीं दिया है। किन्तु एक मत का उल्लेख अवश्य मिलता है जो उक्त मत ने दिलकुल विपरीत है। विद्यानन्दि तया मप्नभनी तरगिणी के कर्ता ने उसका निराकरण किया है। विद्यानन्दि लिने हैं-'कोर्ड विद्वान अनेक धर्मान्मक वस्तु के प्रतिपादक गक्य को नकलादेग और एक धर्मात्मक वस्तु के प्रतिपादक वाञ्च को विकलादेश कहते है। किन्तु ऐसा मानने से प्रमाण नप्तमगी और नयमप्तमगी नहीं बन सकती। कारण, तीन भग-नन्, अनन् और अवनव्य-वन्नु के एक वर्म का ही प्रतिपादन करते है, अन वे विकलादेश कहे जायेगे, और ग्रेप त्रार मग अनेक धर्मान्मक वन्नु का प्रतिपादन करते हैं, इसलिए मकलादेश कहे जायेंगे। मात भगो में नेतीनगेनयवाक्य और गेपचार को प्रमाण वाक्य मानना मिद्धान्त विरुद्ध है। भगो के क्रम में भेद मप्नभगी के विषय मे एक अन्य बात नी ध्यान देने योग्य है, वह है भगो के क्रम में मतभेद का होना । कुछ ग्रन्यकारें'प्रवक्तव्य' को तीमरा और 'न्यान् सदसत्' को चतुर्थ भग न्वीकार करते है और कुछ स्यात् सदमत् को तीमग और अवक्तव्य को चतुर्य भग पढ़ने है। इस क्रम भेद में दोनो सम्प्रदायो के प्राचार्य मम्मिलित है। कुछ आचार्यों ने अपने ग्रन्यो में दोनो पाठों को स्थान दिया है। अकलकदेव राजवातिक में दो स्थलो पर सप्तमगी का वर्णन करते है और दोनो पाठ देते है। उक्त दोनो क्रमों में मे मूल क्रम कौन-सा है, यह बतलाने मे हम असमर्थ है। कारण, मान भगो का सर्वप्रथम उल्लेख करने वाले आचार्य कुन्दकुन्द है और उन्होने अपने दो ग्रन्यो मे दोनो पाठो को न्यान दिया है। ग्यारह्वी यताब्दी तक के विद्वानों ने इस क्रम भेद के विपय में एक भी भब्द नहीं लिखा है। वारहवी शताब्दी के एक स्वताम्बर विद्वान ने इस ओर ध्यान दिया है। वे लिखते है -"कोई-कोई इम (अवक्तव्य) भग को तीनरेभग के न्यान में पड़ने हैं और तीसरे को इसके म्यान में। उस पाठ में भी कोई दोष नहीं है, क्योकि वस्तु विवेचन में कोई अन्तर नहीं पटता।" '"एते त्रय सकलादेशा । चत्वारोऽपि विकलादेशा. प्रोच्यते" । विशे० भा० गा० २२३२ ॥ २सन्मतितकं टी०, पृ० ४४५, ५० ३० । 'श्लोकवा०, पृ० १३७, पं० १३-१७ "सभाष्य तत्त्वार्याधिगम, प्रा० ५, सू० ३१, पृ० ४०६ प० २०, तया पृ० ४१०५० २६ । विशेषा० भा० गा० २२३२ । प्रवचनसार पृ० १६१ । तत्त्वार्यराजवा० पृ० १८१। प्रमाणनय तत्वालोक, परि० ४, सू० १७-१८ । स्याद्वाद म० पृ० १८६ । नयोपदेश पृ० १२ । पञ्चास्तिकाय पृ० ३०। प्राप्तमीका० १४। तत्त्वा०रा०पृ० २४, वा०५। तत्त्वा० श्लो० पृ० १२८ । सप्तभ० पृ० २। प्रमेय० मा० पृ० २०६ । -लेखक "अयं च भग कश्चित्तृतीयभंगस्याने पठ्यते, तृतीयश्चतम्य स्थाने । नचवमपि कश्चिद्दोष , अर्थविशेषस्याभावात्” -रत्नकरावता० परि० ४, सू० १८ ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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