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________________ ३२४ प्रेमी-अभिनंदन-प्रय जीवन में से धर्म प्राप्त होता है। प्रयत्न मे से दर्शन । यह दर्शन भी द्विविध । एक सीधा देखा गया। दूसरा अनुमाना गया। प्राच्य और पाश्चात्य दर्शनो में अधिकाश यह अन्तर है। पहले प्रादर्श की एकता से ययार्थ को अनेकता पर उतरते है। दूसरे तल को विविधता से आरम्भ करके तर्कश शिखर की एकता की ओर उठते है। प्राच्य दर्शनो का आरम्भ इसीसे ऋषियो से होता है, जो जानने से अधिक सावते थे। यहाँ के दर्शनो की पूर्व-पीठिका है उपनिषद्, जो काव्य है। उनमें प्रतिपादन अथवा अकन नहीं है। उनमे केवल अभिव्यजन और गायन है। हृदय द्वारा जब हम निखिल को पुकारते और पाते है तव शब्द अपनी सार्थकता का अतिक्रमण करके छद और लय का रूप ले उठते है। तब उनमें से बोध और अर्थ उतना नही प्राप्त होता, जितना चैतन्य और स्पन्दन प्राप्त होता है। वे बाहर का परिचय नहीं देते, भीतर एक स्फूर्ति भर देते है। किन्तु सबुद्धि मानव उसे अखड रूप से अनुभूति में लेकर स्वय अभिभूत हो रहने से अधिक उसे शब्द में नापआक कर लेना चाहता है। ऐसे सत्य उसका स्वत्व बन जाता है । शब्द में नपतुल कर वह मानो सग्रहणीय और उपयोगी वनता है। उसे अको में फैला कर हम अपना हिसाव चला सकते है और विज्ञान बना सकते है । शिशु ने ऊपर आसमान में देखा और वह विह्वल हो रहा । शास्त्री ने धरती पर नकशा खीचा और उसके सहारे आकाश को ग्रह-नक्षत्रो मे बाँट कर उसने अपने काबू कर लिया। ___ शब्दो का और अको का यह गणित हुआ आयुध जिससे बौद्धिक ने सत्य को कीलित करके वश मे कर लिया। असख्य को सख्या दे दी, अनन्त को परिमाण दे दिया, अछोर को प्राकार पहनाया और जो अनिर्वचनीय या शब्दो द्वारा उसी को धारणा में जड लिया। उद्भट बौद्धिको का यह प्रयत्न तपस्वी साधको की साधना के साथ-साथ चलता रहा। मेरा मानना है कि जैन धर्म से अधिक दर्शन है, और वह दर्शन परम साख्य और परम वौद्ध है। उसका आरम्भ श्रद्धा एव स्वीकृति से नही, पश्चिम के दर्शनो की भाँति तर्क से है । सम्पूर्ण मत्य को गन्द और अक में विठा देने की स्पर्धा यदि किसी ने अटूट और अथक अध्यवसाय से की है तो वह जैन-दर्शन ने। वह दर्शन गणित की अभूतपूर्व विजय का स्मारक है।। जगत् अखड होकर अज्ञेय है। जैन-तत्त्व ने उसे खड-खड करके सम्पूर्णता के साथ ज्ञात बना दिया है । "जगत् क्या है ?" चेतन-अचेतन का समवाय । "चेतन क्या है ?" हम सब जीव। "जीव क्या है ?" जीव है आत्मा। असख्य जीव सब अलग-अलग प्रात्मा है। "अचेतन क्या है ?" मुख्यता से वह पुद्गल है। "पुद्गल क्या है ?" वह अणु रूप है। "पुद्गल से शेष अजीवतत्त्व क्या है ?" काल, आकाश आदि। "काल क्या है ?"
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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