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________________ परम साख्य ३२५ वह भी अणु रूप है। "आकाश क्या है ?" अनन्त प्रदेशी है। "आदि क्या?" "चलना ठहरना जो दीखता है, उसके कारण रूप तत्त्व इस आदि में आते है।" इस तरह सम्पूर्ण सत्ता को, जो एक और इकट्ठी होकर हमारी चेतना को अभिभूत कर लेती है, अनन्त अनेकता मे बाँट कर मनुष्य की बुद्धि के मानो वशीभूत कर दिया गया है । आत्मा असख्य है, अणु असख्य और अनन्त है। उनकी अपनी सत्यता मानो सीमित और परिमित है । यह जो अपरिसीम सत्ता दिखाई देती है केवल-मात्र उम सीमित सत्यता का ही गुणानुगुणित रूप है। __ जैन-दर्शन इस तरह शब्द और अक के सहारे उस भीति को और विस्मय को समाप्त कर देता है, जो व्यक्ति सीधी आँखो इस महाब्रह्माड को देख कर अपने भीतर अनुभव करता है। उसी महापुलक, विस्मय और भीति के नीचे मनुष्य ने जगत्- कर्ता, जगद्धत्ता, परमात्मा, परमेश्वर आदि रूपो की शरण ली है। जैन-दर्शन उसको मनुष्य के निकट अनावश्यक वना देना चाहता है। परमात्मत्व को इसलिए उसने असख्य जीवो मे बखेर कर उसका मानो प्रातक और महत्त्व हर लिया है। ब्रह्माड की महामहिमता को भी उसी प्रकार पुद्गल के अणुप्रो मे छितरा कर मानो मनुष्य की मुट्ठी मे कर देने का प्रयास किया है। जैन-दर्शन की इस असीम स्पर्धा पर कोई कुछ भी कहे, पर गणित और तर्कशास्त्र के प्रति उसको ईमानदारी अपूर्व है। मूल मे सीधी मान्यताओ को लेकर उमी आधार पर नर्क-शुद्ध उस दर्शन की स्तूपाकार रचना खडी की गई। मै हूँ, यह सबुद्धि मनुष्य का प्रादि सत्य है । मै क्या हूँ? निश्चय हाथ-पांव आदि अवयव नही हूँ, इस तरह शरीर नही हूँ। जरूर, कुछ इससे भिन्न हूँ। भिन्न न होऊँ तो शरीर को मेरा कहने वाला कौन रहे ? इसमे मै हूँ आत्मा। मेरे होने के माथ तुम भी हो। तुम अलग हो, मै अलग हूँ। तुम भी प्रात्मा हो और तुम अलग आत्मा हो । इस तरह आत्मा अनेक है। अव शरीर मै नही हूँ। फिर भी शरीर तो है। और मै आत्म हूँ। इससे शरीर अनात्म है। अनात्म अर्थात् अजोव, अर्थात् जड। . इस आत्म और अनात्म, जड और चेतन के भेद, जड की अणुता और आत्मा को अनेकता-इन प्राथमिक मान्यताप्रो के आधार पर जो और जितना कुछ होता हुआ दीखता है, उस सव को जैन-तत्त्व-शाम्प ने खोलने को और कारण-कार्य को कडी में विटाने की कोशिश की है । इस कोशिश पर युग-युगो मे कितनी मेघा-बुद्धि व्यय हुई है, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। वर्तमान में उपलब्ध जैन-साहित्य पर्वताकार है। कितना ही प्रकाश मे नही आया है। उससे कितने गुना नष्ट हो गया, कहना कठिन है। इस समूचे साहित्य मे उन्ही मूल मान्यताओ के आधार पर जीवन की और जगत् की पहेली की गूढ से गूढ उलझनो को सुलझाया गया और भाग्य आदि की तमाम अतयंताओ को तर्क-सूत्र में पिरोया गया है। आत्म और अनात्म यदि सर्वथा दो है नो उनमें सबध किस प्रकार होने में आया- इस प्रश्न को बेशक नही छूआ गया है। उस सम्बन्ध के बारे में मान लेने को कह दिया गया है कि वह अनादि है। पर उसके बाद अनात्म, यानी पुद्गल, पाल्म के साथ कैसे, क्यो, कब, किस प्रकार लगता है, किस प्रकार कर्म का आस्रव होता और वन्ध होता है, किस प्रकार कर्म-बन्ध फल उत्पन्न करता है, प्रादि-आदि की इतनी जटिल और सूक्ष्म विवेचना है कि वडे-से-बडे अध्यवसायो के छक्के छूट जा सकते है ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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