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________________ दो महान सस्कृतियों का समन्वय २२७ वासों, कम्पनी के नौकरी के लिए खोले गए फोर्ट विलियम कॉलेज व शेलवर्न, डेरोजियो आदि विदेशी शिक्षको के सपों के परिणाम स्वरूप हिन्दू समाज मे जीवन और जाग्रति की एक नई चेतना लहर उठी । अग्नेजी तहजीव के प्रति मुसलमानो का दृष्टि-कोण विल्कुल भिन्न था। उनमें कट्टरता की मात्रा बढी हुई थी। सैकडो वर्ष तक इस देश पर शासन करने के मद को वे भूले नही थे। उनके लिए गुलामी के नए तौक को स्वीकार कर लेना उतना आसान नही था। राज्य के वडे-बडे मोहदे उनके हाथ से चले ही गए थे। जो कला-कौशल उनके हाथ में थे, ईस्ट-इडिया कम्पनी की भारतीय उद्योग-धधो को खत्म कर देने की नीति से उन पर वडा धक्का लगा। अग्रेज़ी शासक भी उनके प्रति सशक ही थे। इन सब बातो का परिणाम यह हुआ कि काफी लम्बे अर्से तक मुसलमान अग्रेज़ी-सभ्यता से विमुख और अंग्रेजी-शासन से खिंचे रहे। इसी कारण हम देखते है कि एक ओर जहां हिन्दू समाज मे ब्रह्म-समाज, प्रार्थना-समाज आदि धार्मिक और सामाजिक प्रवृत्तियो ने जन्म लिया, जो पश्चिम की सभ्यता के अच्छे गुण ले लेने के पक्ष में थी, मुस्लिम समाज में फरजी और वहावी आदि आन्दोलन, जो मूलत अग्रेज़ी शासन के खिलाफ थे, फैले। मुसलमानो का अग्रेजी-शासन के प्रति क्या रुख था, इसका अच्छा परिचय हमें मिर्जा अबूतालिव की 'अग्रेज़ी अहद में हिन्दुस्तानी तमदुन की तारीख' में मिलता है। मुसलिम समाज में नई प्रवृत्तियो का सूत्रपात, हिन्दू-समाज के मुकाविले में, बहुत देर से हुआ। नवयुग और प्राचीन का पुननिर्माण नवीन जीवन की जो चेतना भारतीय समाज मे, चाहे वह हिन्दू हो अथवा मुसलमान, व्यापक होती जा रही थी, उसके दो पक्ष थे, जिन्हें कभी हम एक दूसरेसे मिलते हुए, कभी साथ-साथ विकसित होते हुए और कभी विरोध में पाते है। आधुनिक भारत का नया जीवन कुछ तो पश्चिम के प्रभाव में विकसित हुआ है, कुछ उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप। धार्मिक विचारो में, साहित्य में, चित्रकला में, सभी जगह एक विचार-धारा ऐसी पाते है जो पश्चिम के रग में डूबी हुई है और दूसरीजोभारतीय परम्पराकासीधा विकास है। राम मोहन पर, उपनिषदो में उनका दृढ विश्वास होते हुए भी, पश्चिमी • विचारोका गहरा प्रभाव स्पष्ट था। दूसरी ओर राधाकान्त देव और राम कोमल सेन कट्टर हिन्दू-सिद्धान्तो में विश्वास रखते थे। प्रेमचन्द ने आज की समस्याओ का विश्लेषण प्राज के ढग से किया है। जय शकर 'प्रसाद' की आँखों में प्राचीन के स्वप्न नाचा करते थे। वम्बई के चित्रकार पश्चिम से प्रेरणा प्राप्त करते है, बगाल की चित्रकला अजन्ता की भीतो से प्ररणा प्राप्त करती है, भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में, नवीनता का खुले हाथो स्वागत करने वाली और प्राचीनता के पुननिर्माण में व्यस्त ये दोनो प्रवृत्तियां एक साथ पाई जाती है, यद्यपि यह कहना गलत नही होगा कि हमारी राष्ट्रीयता को मुख्य आधार-भित्ति आज भीपापनिकताकी नीव पर उतनी स्थापित नहीं है, जितनी प्राचीनता के स्तम्भो पर। हिन्दू-समाज में जिन अनेक धार्मिक और सामाजिक सुधार-प्रवृत्तियो ने जन्म लिया, उनके पीछे प्राचीनता के पुननिर्माण को यह भावना स्पष्ट ही है। राम मोहन राय द्वारा १८२८ ई० में स्थापित किए जानेवाले ब्रह्म-समाज में हम इस भावना को पाते है। दयानन्द सरस्वती द्वारा १८७५ ई० मे प्रस्थापित आर्य-समाज का तो वह मूल-आधारही थी। आप समाज वेदो को ब्रह्म-वाक्य मानकर चला था। स्वामी दयानन्द ने स्मृतियो और पुराणो को उस हद तक अमान्य हराया जहाँ उनमें वेदो का विरोध पाया जाता था। आर्य समाज ने तो समस्त देश को एक बार आर्य-सस्कृति के भाडे तल ला खडा करने का महान् आयोजन किया था। उसमें से सभी विदेशीतत्वोको निकाल फेंकने का उनका निश्चय का आय-समाज हिन्दुस्तान में पश्चिमी सस्कृति के सघातक प्रभावको हटाना तो चाहता ही था, वह उसे एक हजार वरस के गहरे मुसलिम प्रभाव से भी आजाद करा लेना चाहता था। पॉल्कॉट की थियोसिफिकल सोसाइटी ने इस भावना को और भी पुष्ट किया। उसकी दष्टि में हर वस्तु और हर विचार जिसका विकास, इस देश में हुआ था, सुख शानिक और चिरन्तन सत्य था। यही भावना नए वेदान्त का समर्थन करने वाली सस्थामो द्वारा एक भोर सार सनातन धर्म महामण्डल आदि रूढिवादी सस्थानो द्वारा दूसरी ओर से, दृढ वनाई जाने लगी। सव जगह
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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