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________________ दो महान सस्कृतियो का समन्वय २२३ के मिद्धान्तों के सम्पर्क में आया था। दक्षिण-भारत में ही बौद्ध और जैन धर्मों के रूखे अध्यात्म की प्रतिक्रिया के रूप में गव और वैष्णव पन्यो का प्रारम्भ हुआ। इनका आग्रह प्रारम्भ मे ही जीवन के उपासना-पक्ष पर था। उपासना के आधार के लिए मगुण-ब्रह्म की आवश्यकता पडी। यह कहना कठिन है कि सगुण-ब्रह्म की कल्पना के पीछे इस्लाम के नये सिद्धान्तो का प्रभाव कितना था, पर गकराचार्य के अध्यात्म-दर्शन पर इस्लाम का प्रभाव, जो उनकी जन्म-भूमि के आसपाम पूरे जोर पर था, बिलकुल भी नही पदा, यह मानना भी आसान नहीं है। मध्य-काल का हिन्दू-दर्शन ज्योज्या विकाम पाता गया, इम्लाम का प्रभाव उस पर अधिक स्पष्ट होता गया। शकराचार्य के अद्वैतवाद ने धीरे-धीरे गमानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत का रूप लिया, और तब वह वल्लभाचार्य के द्वैतवाद में विकसित हुया । द्वैतवाद की मनोरम कल्पना के पीछे मे, सूफी-मत के अधिक सीधे सम्पर्क के परिणाम स्वरूप, भक्ति की धारा का फूट निकलना तो महज-स्वाभाविक ही था। उत्तरी-भारत में तेरहवी, चौदहवी और पन्द्रहवी शताब्दियों में जो सिद्धान्त फैले उन पर तो मुस्लिम प्रभाव बहुत सीधा ही पड रहा था। गमानन्द ने विष्णु की कल्पना को और भी महज-सुलभ बनाकर राम का रूप दिया। उन्होंने भक्ति की दीक्षा चारी वर्गों को दी। कबीर ने तो रीति-रिवाज और जात-पात को उठा कर एक ओर रख दिया और राम और रहीम की एकता पर पूरा जोर दिया। उनके मिद्धान्तो पर तो मौलाना स्मी, शेख सादी और दूसरे मूफी कवियों और मन्ती का प्रभाव बहुत स्पष्ट है। नानक और दादू की माखियो मे हिन्दू और मुसलमान धमों के मामजन्य के इस प्रयत्न को हम और भी बढा हुआ पाते है। नानक तो सूफी-रग में इतने रंग गये थे कि यह कहना कठिन हो जाता है कि हिन्दू-धर्म का उन पर कितना प्रभाव था। वैदिक और पौराणिक सिद्धान्तो की उन्हे कम ही जानकारी थी। दादू का भी यही हाल था। दो-तीन गताब्दियों तक देश भक्ति की उत्ताल तरगो मे एक नई प्रेरणा से न्पन्दित-विभोनित होकर इवता-उतराता रहा । हिन्दुप्रो में भक्ति-आन्दोलन अपने पूरे जोर पर था और मुसलमानों में मूफियो की नई-नई जमातें, चिश्ती, सुहरावर्दी, नक्शवन्दी आदि 'प्रेम की पीर' का प्रचार कर म्ही यो। भावना के इम व्यापक प्रदेश में हिन्दू और मुमलमानो का एक दूसरे के समीप से समीपतर आते जाना स्वाभाविक ही था। उससे भी नीचे नर पर, जहां माधारण जनता के आचार-विचार, रीति-रिवाज, पीर-पूजा और मानता-मनौती का सम्बन्ध था, हिन्दू और मुमलमानो में भेद करना असम्भव ही था। एक ही पीर या साचुकी परस्तिम-गाह पर हिन्दू और मुसलमान मभी इकट्ठा होते थे। राजनैतिक समझौता हृदय की इम एकता के आधार पर राजनैतिक समझौते की भावना का विकास पाना भी सहज और स्वाभाविक ही था। यह एक ऐतिहासिक मत्य है कि भारतीय इतिहास के समस्त मुस्लिम-काल मे, केवल दो मुसलमान-गामक, फाराज तुग्रनक और पोरगजेब, ऐसे हुए है जिन्होने अपने गामन-काल में धार्मिक असहिष्णुता की नीति का पालन किया, और वह भी थोडे वर्षों के लिए और विशेप राजनैतिक परिस्थितियों के कारण। अन्य शासको ने, और इन दोनो गामका ने भी, अपने गासन-काल के शेप भाग में धार्मिक मामलो में हस्तक्षेप न करने की नीति का ही पालन किया। धन इस्लाम का पक्ष लिया, पर हिन्दू-धर्म के साथ दुर्भावना नहीं रक्खी। अकबर के बहुत पहले कश्मीर का सुल्तान विदान अपनी धार्मिक महिप्णता की नीति के लिए प्रसिद्ध था। उसने जजिया हटा दिया और सस्कृत क कई अन्यो का फारसी में अनुवाद किया । वगाल में अलाउद्दीन हुसैन शाह की भी वही नीति रही। शेरशाह हिन्दू जनता म वक्फ वांटा करता था। सम्राट अकबर के शासनकाल में यह प्रवृत्ति अपनी चरमसीमा तक जा पहुंची। गल सम्राटी ने समस्त गासन का सगठन जिन सिद्धान्तो पर किया वे भारतीय पहले थे, सैरेसेनिक, ईरानी या मुस्लिम वाद मे । मस्थानो मे थोडा हेर-फेर हया, पर मलत वे वही रही जो सनातन काल से चली आ रही थी। वामिक महिष्णुता की नीति ने भारतवर्ष के मम्लिम शामन मे धर्म का स्थान ले लिया था।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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