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________________ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ २२२ जवर्दस्ती।* दसवी शताब्दी मे मसूर अल हल्लाज, ग्यारहवी में वावारीहान और उनके दर्वेशो का दल, शेख इन्माइल वुबारी और वारहवी में फरीदुद्दीन अत्तार और तजाकिरत-उल-औलिया तेरहवी मे त्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती और शेख जलालुद्दोन तवरेजी, नैयद जलालुद्दीन बुखारी और वावा फरीद, चौदहवी मे अब्दुल करीम अल्जीलो-और इनके साथ और असत्य छोटे-मोटे प्रचारक-इन सबका एक तांता-सा बन गया। उनके तेजस्वी व्यक्तित्व और आकर्षक प्रचार ने असख्य हिन्दुओ को अपनी ओर आकर्षित किया। दोनो समाजो का आपनी सम्पर्क दृढ से दृढ़तर होता गया । व्यवधान की प्राचीरे एक-एक करके ढह चली। ___सामाजिक सहयोग यहाँ हमें इन वात को भी भुला नहीं देना है कि जो मुसलमान वाहर से इस देश में पाये उनमे वे लोग नही थे, जिन्होने पैगम्बर मे अथवा प्रारम्भिक खलीफागो के नेतृत्व में इस्लाम का झडा दूर-दूर देशो मे गाडा था और जिनकी आत्मा एक महान् आदर्श से प्रज्वलित हो उठी थी, बल्कि वे लोग थे जिनके नामने कोई वडा आदर्श नहीं था, जो भिन्नभिन्न फिरको में बंटे हुए थे और जिन्हें लूट-मार की भावना ने प्रेरित कुछ स्वार्थी नेताओं ने भिन्न-भिन्न देशो ने बटोर लिया था। विजय का मद उनमे था, पर वह कब तक टिक पाता ? धार्मिक प्रचारक केवल धम का सन्देश लाये थे। सामाजिक संगठन की विभिन्नता को सुरक्षित रखने पर उनका आग्रह नहीं था। उनके प्रभाव में जिन लावो व्यक्तियो ने इस्लाम को दीक्षा लो, उन्हें उम नमाज-व्यवस्था को तनिक भी जानकारी नहीं थी, जिमका निर्माण मुसलमानो ने हिन्दुस्तान के बाहर के देशो में किया था। ऐसी परिस्थिति में वही हुआ जो कि स्वाभाविक था। मुसलमान धर्म के द्वारा इस देश की ननातन परम्परा से पलहदा हो गये, पर उन्होने न तो इस देश की नमाज-व्यवस्था को नष्ट-भ्रष्ट करने को चेष्टा को और न उसके मुकाविले मे किसी अन्य समाज-व्यवस्था का निर्माण किया। हिन्दू-मन्याएं कायम रही और घोरे-धोरे मुसलमान उन्हें स्वीकृत करते गये। इस प्रकार यामीण अर्थ-व्यवस्था की छत्रछाया मे एक नये समाज का निर्माण हुआ, जिनमे विभिन्न मतावलम्बी तो थे, पर जो एक ही समाज-व्यवस्था को मानते थे। दशहरो मे मगठन को दिया कुछ भिन्न यो, पर वहां भी हिन्दू और मुसलमान वाणिज्य और व्यापार के डोरो द्वारा एक दूसरे ने बंधते गये। गासन-व्यवस्था में भी हिन्दू पदाधिकारियो की सख्या वढने लगी। चारो ओर सहयोग, साह्वर्य और नौहार्द्र की भावना ने जोर पकडा। जो वर्वर विजेता के रूप में आये थे, वे हमारे सामाजिक जीवन के एक अग वन गये। केवल एक चीज़ व्यवधान बनकर उनके बीच में जडी रह गई थी। वह था उनका धार्मिक मतभेद, पर धर्म धोरे-धीरे व्यक्ति के विश्वास और प्राचार की वस्तु बन गया। हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के धार्मिक प्रचार और व्यवहार के प्रति सहिष्णु बन गये और मामाजिक घरातल पर उन्होने एक दूसरे के धार्मिक कृत्यो मे भी उदारता से भाग लेना आरम्भ कर दिया। धार्मिक सहिष्णुता सामाजिक सहयोग के साथ-साथ धार्मिक सहिष्णुता की भावना भी प्रवल होती चली। ऊपर से देखने से तो यह जान पडता है कि मूत्ति-पूजक हिन्दू-धर्म और मूत्ति-भजक इस्लाम मे कही तादात्म्य हैही नहीं, पर कई शताब्दियो पहले से वौद्ध धर्म और हिन्दू वेदान्त के प्रचारक मुस्लिम देशो में फैल गये थे और सूफी मत के विकास पर उनका प्रभाव स्पष्ट ही पड रहा था, यद्यपि यह भी सच है कि सूफी सिद्धान्तो की बुनियाद हमे कुरान-शरीफ की कुछ आस्तो में ही मिल जाती है । सूफो-मत के वाद के सिद्धान्तो पर हिन्दू-दर्शन का प्रभाव पड़ा। निर्वाण, साधना, भोग आदि ने ही फना, तरीका, मराक़वा का रूप ले लिया। दूसरी ओर इस्लाम के सिद्धान्तो का बहुत वडा प्रभाव हिन्दू-दर्शन पर भी पड़ा । सुवार को नई धारा का प्रारम्भ दक्षिण-भारत से ही हुआ था, जहां हिन्दू-दर्शन पहली बार इस्लाम *T W. Arnold Preaching of Islam .
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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