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________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय १६६ तव आश्चर्यजनक फुर्ती के साथ उन्होने अपना हाथ एक थैले में डाला, जो पहले के तीनो थैलो से वडा था और उममें से कोई सूखी जडी-बूटी निकालकर उसके छोटे-छोटे टुकडे किये। फिर उन टुकडो को अपनी बाई हथेली पर रख दाहिनी हथेली से दबाकर रगडा और वारीक कर डाला। उस पाउडर को बाई हथेली पर रखकर उन्होने दाहिने हाथ मे फुकनी उठाई और उसके द्वारा प्राग तेज़ की। जव द्रव में से नीले रंग का धुवां निकलने लगा तव उन्होने धीरे से फुकनी नीचे रख दी और बाएं हाथ वाला पाउडर पात्र में छोड़ दिया। उसके वर्णन में मुझे जितना समय लगे, उससे भी कम में एक विचित्र घटना हुई । ज्योही पाउडर के टुकडे उस द्रव में धुले कि पात्र के पदार्थ का रग ही वदल गया। काला रग बिलकुल गायव हो गया। एक क्षण पहले जहाँ ऐसा काला पानी था, जैसा कि पतीली का घोवन होता है, वहाँ अव बर्फ मे भी सफेद नमक मौजूद था। मैने नमक विचार कर ही लिखा है । न जाने किस जादू के जोर से उस उबलते द्रव की प्रत्येक वूद गायव हो गई और उसके स्थान पर एक प्रकार का पाउडर रह गया जो कि चाँदी की तरह चमक रहा था । xx ___ अपने कौतूहल को मै अधिक न रोक सका। मैने अव मौन रहने की अपनी वह प्रतिज्ञा तोड ही दी, जिसके द्वारा मुझे उस पुरानी किंतु ज्ञानपूर्ण प्रयोगशाला मे प्रविष्ट होने तथा वहां काम देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। भावुकता से भरी हुई आवाज़ मे मैने पूछा, "नाना, यह क्या हो गया ? सूखी लकडियाँ कहाँ चली गई ? धातु के काले टुकड़े क्या हुए ? पात्र का सारा द्रव पीकर बदले में यह चमकीला पाउडर कोन छोड गया ?" _ "वच्चे, ठहरों", नाना ने इस बार अपनी कठोर स्पष्टवादिता के स्थान मे आश्चर्यजनक सहानुभूति दिखाते हुए कहा-"इस पात्र की वस्तु को हानि पहुंचने के पहले ही खाली न कर दू तब तक धैर्य रक्खो। अग्निदेव आज अपने अनुकूल है। उन्होने मेरे कर्म पर प्रसन्न होकर उसे सफलता से मडित किया है।" हाथ के वने कडे और मटमैले कागज़ को फैलाकर उसने उस पर पात्र को औंधा दिया। फिर मुझसे कहा"इस पाउडर में से थोडा-सा लो और उसे अपने अंगूठे और तर्जनी उँगली के बीच रखकर रगडो, जैसे कि मै रगड रहा हूँ।" यह कहकर उन्होने मुझे रगडने की क्रिया दिखाई। मै वोला, "लेकिन नाना, इसे रगडने की क्या जरूरत है ?" यह तो उस मैदा से भी अधिक महीन है, जिसे हमारे नगर (रावलपिंडी, पजाव) का हलवाई मिठाइयां बनाने में इस्तेमाल करता है। ___मैं जानता हूँ कि इस पाउडर को अधिक महीन बनाने की इच्छा से रगडना व्यर्थ है", नाना ने कहा। उनके सेब-जैसे गुलाबी गाल सन्तोष से चमक रहे थे । “पहाडी नमक को इतना महीन पीसने वाली हाथ की मशीन आज तक ईजाद नही हुई। अग्निदेवता की शक्तियो को एक नाशवान् मानव कहाँ प्राप्त कर सकता है ? यदि कोई ऐसी धृष्टता करे भी तो उसका प्रयास व्यर्थ ही होगा। मेरे प्यारे बच्चे, मेरी इस बात को गांठ वांघ लो।" "लेकिन नाना, अग्निदेवता इतना ही तो कर सकते थे कि उन विभिन्न आकार के छोटे-बडे टुकडो को, जिन्हें आपने पात्र में रक्खा था, गला दें। उन्होने अवश्य ही द्रव को उबाल कर उसमें शब्द और धुवाँ उत्पन्न कर दिया। बस, इतना ही तो उन्होने किया। "पात्र का पदार्थ बडा भद्दा दीखता रहा जव नक कि आपने उममें वह जादू की जडी नही छोडी। तभी रूप और रग में परिवर्तन हुआ। सो यह तो मेरे नाना की ही करामात है कि यह अजीव वात पैदा हुई।" “अग्नि की ही सहायता से ऐसा हुआ, मेरे बच्चे।" उन्होने कहा । उनकी आवाज़ मन्द पड रही थी। अांखो का दूसराही रग था। उनमें वह दीप्ति थी, जो ज्ञान द्वारा अर्जित सफलता से प्राप्त होती है । "वे सुन्दर लकडी के टुकडे क्या थे, नाना?"
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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