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________________ हमारी संस्कृति का अधिकरण १९५ थोडी देर में वह उठकर मेरे बैठने के स्थान से परली तरफ गया, जहाँ क्षण भर पहले मै सिकुडकर बैठा था। अच्छी प्रकार से यह देखने के लिए कि अब वह क्या करने जा रहा है, मै दरी के टुकडे से उठकर दूसरी ओर चला गया। आगे जो कुछ मैने देखा वह मेरी स्थान परिवर्तन की तकलीफ के बदले में बहुत वहा आनद था। सफेद धातु की सडासी से उसने एक छोटा-सा पात्र उठाया और उसे आग पर रख दिया। यद्यपि मै अभी बच्चा था तो भी मैने यह भलीभांति देख लिया कि उसने कितनी सावधानी के साथ यह काम किया, मानो वह कोई धार्मिक कृत्य हो, जिसके करने में बडी तत्परता की आवश्यकता हो । उसने पात्र को उस समय तक नही छोडा जब तक कि उसे पूरा विश्वास नही हो गया कि वह भली भांति आग के बीच में स्थिर हो गया है। उसका ऐसा करने का अभिप्राय क्या था? वह क्या करने जा रहा था ? -आदि प्रश्न मेरे मस्तिष्क में भरने लगे। वे मेरे मुख से अवश्य निकल पडते, परन्तु बात यह थी कि उसने मुझे इस शर्त पर उस कमरे मे आने की आज्ञा दी थी कि मैं अपनी जवान बन्द रक्खू । उस उमर तक जितने व्यक्तियो से मेरा पाला पडा था, वह उनमें सबसे अधिक कडे मिजाज का आदमी था। जिस बात पर दृढ हो जाता, उससे उसे प्रार्थनाएं तो दूर, कोई रो-धोकर भी चाहे तो नही हटा सकता था। इसीलिए मुझे भी झख मारकर वह शर्त निभानी थी, जो मुझे उसके साथ करनी पडी थी-अर्थात् देखने को मै सब कुछ देख सकता था, परन्तु आग के पास अपने स्थान पर बिलकुल चुप्पी साधकर बैठना आवश्यक था। "देखो, प्रश्न एक भी नहीं करना । समय आवेगा तो इसकी वाबत मै स्वय ही तुम्हें सब कुछ बता दूगा।" यही उसका स्पष्ट निर्देश था, जिसको मै अच्छा न समझते हुए भी आदर के साथ पालन करता था। एक क्षण रुकने के बाद उसने यह भी कहा था-"देखो, तुम्हारे बाप ने मेरी ज़िन्दगी बर्बाद कर दी, लेकिन मै उसे अपनी इस प्रयोगशाला के अन्दर घुसने तक नहीं दूगा, यह बताना तो दूर रहा कि मै यहाँ काम क्या करता हूँ। मैं जानता हूँ कि वह इन बातो के जानने का वडा उत्सुक है। वह मेरे रहस्यो को जानना चाहता है, लेकिन मै उसे बताऊंगा नही, कदापि नही ।" इस 'कदापि नहीं' में वह स्पष्टवादिता थी, जिसे मैंने उसे छोडकर अपने अन्य परिचित जनो में बहुत कम पाया था। "पर तुम । तुम्हारी वात दूसरी है । तुम मेरे अपरिचित नहीं हो। तुम तो मेरे ही खून हो। इसलिए तुम्हें मै सिखाऊँगा। लेकिन देखो, तुम्हें मेरी बातो का आदर करना चाहिए । धैर्य रक्खो -धैर्य।" - ___ मुझे धर्म ही रखना पडा-बहुत अधिक, अन्यथा खाक भी न सीख पाता। मेरा गुरु किसी प्रकार भी अपने रहस्यो को न वताता। उस कमरे में इतनी द्रुतगति से क्रियाएं हो रही थी कि वस्तुत किसी बात पर विचार करने का समय ही न था। कोयलो पर वह छोटा-सा पात्र भलीभांति रक्खा ही गया था कि उसने एक भूरे रंग की थैली को सावधानी के साथ खोलकर उसमें से कोई चीज निकाल कर पात्र में डालना शुरू किया। कुछ काले और लम्बे टुकडे उस छोटे वर्तन में गिरे। वे पिघलें कि उन्होने एक गहरे हरे रंग के थैले को खोला, जो पहले से बडा नही था। उसमें से भी कोई वस्तु निकालकर पात्र में डाली। इसी प्रकार एक तीसरे थैले में से, जो उसके समीप ही दरी पर पड़ा था। यहाँ आकर क्रिया रुक गई। कम-से-कम मैने ऐसा ही सोचा और देखा कि पिघला हुआ तरल पदार्थ उबलकर पात्र के ऊपर तक आ गया है। . मेरा यह विचार ठीक था, क्योकि अब उन्होने फुकनी उठाकर बडे ही सधे हुए ढग से फूकना शुरू किया। कोयले अधिक तेजी से चमकने लगे और द्रव पदार्थ खौलने लगा।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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