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________________ x हमारी संस्कृति का अधिकरण - १६७ "तुम अभी बच्चे हो। अच्छा, तुम्हारी उमर क्या है ? छ ? नही लगभग सात। इस उमर के बच्चे पर विश्वास नहीं किया जा सकता कि वह किसी रहस्य को गुप्त रख सके। खैर, कोई बात नही । मै तुम्हें किसी दिन वता ही दूगा । मैंने जो कुछ सीखा है वह सव तुम जान लोगे। विना कुछ छिपाये मै तुम्हें सब वता दूगा। लेकिन अभी नही, जव तुम बडे हो जाओगे और अपने ससार से विदा लेने से पहले ही। . X X मेरे नाना का जिस समय देहान्त हुआ, मै उनसे बहुत दूर था। उन्होने अपने पीछे कोई ऐसा लेख नही छोडा, जिससे मै यह जान पाता कि उन्होने किस प्रकार वह करामात दिखाई थी। और भी अनेक करामातें थी जिन्हें सीखने की मेरी वडी उत्कठा थी। यदि उन्होने मेरे शैशव की उन आँखो के लिए, जो उनका रहस्य देख सकी थी, कुछ लिखा भी होगा तो वह मुझे प्राप्त नहीं हो सका। आधी शताब्दी से अधिक मेरे जीवन काल में अनेक अवसर ऐसे आए जव में इस बात पर विचार करता रहा कि क्या ससार में मैं ही एक ऐसा अभागा व्यक्ति हू जो दुर्भाग्य से इस प्रकार ज्ञान प्राप्त कर सकने से वचित रह गया हो । मेरे नाना ने अपनी छोटी-सी प्रयोगशाला में रक्खी हुई सिगडी से सत्य का अनुभव किया। इस बात को सोचते-सोचते मेरे मस्तिष्क में आशा की एक किरण का उदय हुआ, जिसके द्वारा मुझे एक दूसरे पात्र का, जो नाना के पात्र से भी कही अधिक वडा और पुराना था, पता चला। वास्तव में यह पात्र इतना विशाल था कि न तो मै उसका पेंदा ही देख सकता था और न उसका ऊपरी भाग। यहां तक कि उसके किनारे जो वाहर की ओर उठे हुए थे, मुझे दिखलाई नही पडते थे। यह सव होते हुए भी मुझे उसका ज्ञान था। अपनी जाग्रत् अवस्था के प्रत्येक क्षण में मुझे उसका ध्यान रहता था। यहां तक कि स्वप्नावस्था मे भी मेरा विचार वरवस उसकी ओर आकृष्ट हो जाता था। मुझे सचमुच यह प्रतीत होता था कि उक्त पात्र मेरे चारो ओर है । वस्तुत मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व उसी में था-मै उसीके अन्दर रहता और घूमता-फिरता था। केवल मै ही नहीं, मेरे साथी और कुटुम्बी भी। वे लडके भी जो कि किसी वास्तविक या काल्पनिक मनोमालिन्य के कारण मुझसे रूठे हुए थे, इसी पात्र के अन्दर थे और वे लडके-लडकियां, स्त्री-पुरुष भी, जो मेरे लिए विलकुल अपरिचित थे, इस पात्र की परिधि से वाहर न थे। यह पात्र स्वय भारतमाता थी। अज्ञात काल से ससार के कोने-कोने से लोग पाकर भारतभूमि पर चलतेफिरते और काम करते रहे। वे विभिन्न जातियो और विभिन्न धर्मों वाले थे। उनके रूप-रंग, भाषाएँ और आचारविचार भी एक दूसरे से भिन्न थे। उनमें से अधिकाश यहाँ खाली हाथ आये। लेकिन दिमाग उनका खाली नही था। प्रत्येक आगन्तुक का मस्तिष्क विचारो मे परिपूर्ण था और उसके हृदय में अपनी-अपनी जन्मभूमि में प्रचलित विचारो तथा सस्थाओ के प्रति विशेष श्रद्धा-भक्ति थी। ज्योही बाहरी लोग भारत-वासियो के सम्पर्क में आये और सबके भावो और विचार-परम्परागो में आदान-प्रदान होकर सब लोग आपस में घुल-मिल गये तब उस सस्कृति का उद्भव - हुआ, जिसे हम 'भारतीय संस्कृति' कहते है। यह सस्कृति इतनी विशिष्ट थी कि दूसरी मस्कृतियो से उसकी भिन्नता स्पष्ट दृष्टिगोचर हो सकती थी। इसमें इतनी जीवन-शक्ति थी कि उन प्रदेशो से भी, जो कि शताब्दियो से भारतभूमि से पृथक रहे है, वह नष्ट नहीं हो सकी। देहरादून ]
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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