SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हमारी संस्कृति का अधिकरण निहालसिंह एक छोटी-सी मिट्टी की सिगडी, जो ऊँचाई में एक फुट भी न होगी, लाल मिट्टी से पुती विलकुल साफ-सुथरे फर्श के बीच में रक्खी थी । उसके ऊपर एक बेढगी लोहे की भभरी पर लम्बे और पतले हाथ के विने कोयले के कडे जमा थे। एक छोटी-सी दुबली-पतली स्त्री अपनी आश्चर्य जनक लुभावनी चितवन के साथ मिट्टी की भीतो वाले उस कमरे में प्रविष्ट हुई, जिसकी सादी छत को शहतूत की कडियाँ सँभाले हुए थी। एक तुर्की ढंग का लाल पुराना कपडा 'बाग', जो उस स्त्री की कला- प्रवीणता के कारण अपना 'वाग' नाम सार्थक कर रहा था, उसके कन्धो पर सुनहले ऊँचे मुकुट पर से गिर रहा था। अपने छोटे हाथो में, जो उतने ही दृढ थे, जितने कि सुन्दर, वह एक छोटी डलिया लिये थी । जलते हुए कोयले, जिन्हें उसने खुले हुए प्रांगन के पीछे रसोईघर की अँगीठी से निकालकर बाहर रख दिया था, धीमे-धीमे चमक रहे थे । सिगडी के पास बैठकर उसने डलिया नीचे रख दी और फुर्ती के साथ, जिसे उसने बहुत दिनो के अभ्यास से प्राप्त किया होगा, उसने सिगडी के कोयलो को इधर-उधर हटाकर बीच में थोडी जगह कर ली और वहाँ नये कोयलो को रख दिया । फिर झुककर अपने सुन्दर नोठो को खोलकर धीरे-धीरे आग को फूका । उसके फूले हुए गाल उन लाल सगमरमर के टुकडो -जैसे लगते थे, जिन्हें उसने कुछ समय पहले ही मुझे 'भला आदमी' होने के एवज में इनाम में दिया था । " बस, अब ठीक तरह से आग जलेगी ।" उसके पति ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा । अपनी उस छोटी-सी पत्नी से वह पूरा दो फुट ऊँचा था । उसका तुन्दिल पेट पत्नी द्वारा दिन में दो बार डटकर वढिया भोजन मिलने का ही परिणाम था । वह दूसरी ओर सिगडी के सामने बैठा था । उसकी लबी तोद सिगडी को लगभग छू रही थी। घर में सदा दुधारी भैस बनी रहती थी । पत्नी अपने हाथ से निकाले हुए ताज़े वर्फ से सफेद मक्खन से गेहूँ, मक्का या बाजरे की रोटियो को खूब तर कर देती थी। साथ ही दही, मट्ठा भी रहता था और मौसम में सरसो का साग । अपने लम्बे-चौडे और फुर्तीले हाथो में यह भूरी, दाढी वाला पुरुष एक लम्बी पीतल की फुंकनी लिये हुए था, जिस पर सुन्दर चित्रकारी अकित थी । जब वह अपनी प्यारी स्त्री को रसोईघर में भेज देता तो इसी फुंकनी से वह आग प्रज्वलित किये रहता था । एक या दो गज दूर बैठकर आश्चर्यचकित श्रांखो से में उसकी प्रत्येक कार्रवाई को देख रहा था । जव वह निश्चल हुआ और केवल फुंकनी की 'पफ-पफ' आवाज़ रह गई तो मैने आँख उठाकर उत्सुकता से उसके अवयवो की ओर देखा । उसका सिर कुछ वडा था और उम पर घर की बुनी और रगी हुई एक छोटी-सी पगडी बंधी थी । माथा ऊँचा, चौडा और वृत्ताकार था। उस पर गहरे विचार के कारण लकीरें पडी हुई थी। भूरी, जटीली मोहें उन आँखो के ऊपर छाई हुई थी, जो किसी अदृश्य दीप्ति से जगमगा रही थी । उसके गालो का रंग लाल था, मानो उन लाल गेहुँग्रो से प्राप्त हुआ हो, जिनके खाने का वह बहुत ही शौकीन था । ये गेहूँ उन खेतो में उगते थे, जो उसके कमरे से, जिसमें वह और में दोनो बैठे थे, एक फर्लांग भी दूर नही थे । X X X X
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy