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________________ १५६ • जायसी का पक्षियों का ज्ञान सारौं' सुना जो रहचह फरहीं, कुरहिं परेवा श्री करबरहीं। "पीव पीव" कर लाग पपीहा, "तुही तुही" कर गडुरी जीहा। "कुहू कुह" करि कोइलि राखा, श्री भिंगराज बोल बहु भाखा । "दही दही" करि महरि' पुकारा, हारिल बिनवै प्रापन हारा। कुहकहिं मोर सुहावन लागा, होइ फुराहर बोलहिं कागा। जावत पखी जगत के, भरि बैठे अमराउँ, प्रापनि प्रापनि भाषा, लेहि दई कर नाउँ । कैसा सुन्दर और स्वाभाविक वर्णन है । जगत के जितने भी पक्षी है, अमराई मे बैठे है और अपनी-अपनी वोली में ईश्वर का नाम ले रहे है। सब पक्षियो को एकत्र करने का कैसा उपयुक्त स्थान जायसी ने चुना है। प्राम की घनी अमराई इन पक्षियो से भर गई है और इनके चहचहाने से गूज रही है। भोर होते ही चुहचुही बोलने लगती है। देहात के गीतो मे आजकल भी “भोर होत चुहचुहिया बोले" अक्सर सुनने को मिलता है। जायसी भला फिर सब कुछ जान-बूझ कर उसके इस अधिकार को कैसे छीन लेते ? पडकी या फाखता भी अपना “एक तूही" से मिलता-जुलता शब्द रटने लगती है-सारौं (सारिका) और सुश्रा अपने रहचह (चहचहाने) से एक प्रकार का ममाँ अलग ही वाँधे हुए है। कबूतर अपनी 'गुटरगू कर रहे है तो पपीहा अपनी 'पी कहाँ' और गुडरी 'तुही तुही' की धुन लगाये हुए है-कोयल तो सिवा 'कूऊ कूऊ' के और कुछ जानती ही नही, लेकिन भूगराज तो बोली के लिए प्रसिद्ध है। वह अनेक प्रकार की बोलियां बोलता है। महरि 'दही दही' पुकारती है और मोर कुहकता है, पर हारिल कुछ बोलना नही जानता। इससे वह हार मान कर अपनी दीनता प्रदर्शित करता है। कैसा स्वाभाविक वर्णन है । सव-के-सब पेड पर रहने वाले पक्षी है, जो अपनी बोलियो के लिए प्रसिद्ध है। जहाँ तक हो सका है, कवि ने पक्षियो की अनुकृति को ध्यान में रखा है। पडकी का 'एकै तुही', पपीहा का 'पीव कहाँ'--गुडरी की 'तुही तुही', कोयल की 'कुहू कुहू' और महरि का 'दही दही' तो बहुत प्रसिद्ध है, लेकिन मोर का कहकना भी कवि की पैनी दृष्टि से नही बच सका। ग्राम्यगीतो में मोर की बोली को "कुहकना" और कोयल की बोली को "पिहकना" आज भी कहते है। हारिल अपनी रगीन पोशाक के कारण छोडा नही जा सकता था। इससे कवि ने बडी खूबी से न बोलने की मजबूरी दिखा कर उसकी मौजूदगी का निवाह किया है। । थोडी दूर आगे चलने पर एक ताल मिलता है, जहाँ माथे कनक गागरी, पावहिं रूप अनूप , जेहि के अस पनिहारी, सो रानी केहि रूप । ऐसी सुन्दरियां उस ताल में पानी भरने आती है। ताल तलाव वरनि नहिं जाही, सूझे वार पार किछु नाहीं। , फूले कुमुद सेत उजियारे, मानहुँ उए गगन महें तारे। उतरहिं मेघ चढहिं ले पानी, चमकहिं मच्छ वीजु के बानी। • पौरहिं पंखि सुसहि सगा, सेत, पीत, राते बहु रगा। चकई चकवा केलि कराही, निसि के विछोह दिनहि मिलि जाही। 'सारौं सारिका, मैना। 'महरि पहाड़ी मुटरी। गडुरी-एक प्रकार का बटेर। 'पखि-पक्षी।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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