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________________ १६० प्रेमी अभिनवन पथ . कुररहिं सारस करहिं हुलासा, जीवन मरन सो एकहि पासा । वोलहिं सोन', ढेक', बग', लेदी, रही अबोल मीन जलभेदी। नग अमोल तेहि तालहि, दिनहि वरहिं जस दीप। जो मरजिया होइ तह, सो पावै- वह सीप ॥ वडा विस्तृत ताल है, जिमका ओरछोर नही दीख पडता, जिसके नील जल मे स्वेत कमल ऐसे लगते है, मानो आकाश में नक्षत्र विखर पडे है । वादल जव सरोवर से जल भर कर उठने लगते है तो उनमे मछलियो की चमक विद्युतरेखा-सी जान पडती है । तरह-तरह के सफेद, पीले और लाल पक्षी ताल में एक ही सग तैर रहे है। रात्रिवियोग के पश्चात दिन को मिलने पर चकई-चकवा जलक्रीडा में तल्लीन है। मारस अपने जोडे के साथ कर्कश वोली वोल कर पानन्दमग्न है। उनका जीवन और मरण इतना निकट रहता है कि उनको चिन्ता किस बात की? सोन, ढेक, वग और लेदी तो अपनी-अपनी बोली बोलती है, लेकिन जल में रहने वाली मछलियां बेचारी अवोल ही रह जाती है। उस ताल में कुछ अमूल्य रत्न भी है जो दिन में भी अपना प्रकाश फैलाये रहते है, लेकिन उसमें भी मीप वही ला सकता है, जो जान हथेली पर लिये फिरता हो। जायसी ने ताल की चिडियो को उस अमराई से दूर इस सरोवर मे जमा किया है। इनमे चक्रवाक, वत, ढेक, सारस, वक और लेदी सभी तालाव में रहने वाली प्रसिद्ध चिडियाँ है--चक्रवाक का चकई-चकवा, वत या काज़ का सोन, आँजन वगला का ढेक और छोटी मुरगावी का लेदी बहुत प्रचलित नाम है । जायसी ने इसी कारण इन्ही नामो को साहित्यिक नामो की अपेक्षा अधिक पसन्द किया है। सारस के लिए “जीवन मरन सो एकहि साथा" लिख करके कवि ने किस सुन्दर ढग से इस ओर सकेत किया है कि सारस का जोडा फूट जाने पर वचा हुमा दूसरा पक्षी अपनी जान दे देता है। सरोवर की अन्य वस्तुप्रो के वर्णन में अतिशयोक्ति से काम लेकर भी जायमी ने पक्षियो के वर्णन मे स्वाभाविकता से काम लिया है। दूसरा स्थल जहाँ जायसी को पक्षियो के सग्रह का अवसर प्राप्त हुआ है 'नागमती का वियोगखड' है। तुलसीदास जी ने तो श्री राम से "हे खग, मृग, हे मधुकर सेनी, कहुँ देखी सीता मृगननी।" केवल इतना ही कहला कर छुट्टी ले ली है, लेकिन जायसी ने नागमती को एक वर्ष तक रुलाने के बाद भी उसकी विरह वेदना कम नहीं होने दी। तभी तो वह बरस दिवस घनि रोइ के, हारि परी जिय झखि , मानुस घर घर बूझि के, वूझ निसरी पखि । एक वर्ष तक रोने के पश्चात् जी से हार कर वह पक्षियो से राजा को पता पूछने निकली, क्योकि मनुष्यो के घर-घर पूछने पर भी उसे कोई लाभ न हुमा। नागमती-के वियोग-खड का यह दो अर्थों वाला वर्णन भी कवित्वमय हुआ है। देखिये नागमती की कैसी दशा हो गई है भई पुछार लीन्ह वनबासू , बैरिनि सवति दीन्ह चिलवासू । होइ खरवान विरह तनु लागा, जो पिउ पावै उडहि तो कागा। हारिल भई पथ मै सेवा, अब 'तह पठवौं फोन परेवा। 'सोन=सवन, काज, बत, कलहस । 'बग-बगला । ढेक=प्रांजन बगला। "लेवी-एक छोटी बतख ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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