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________________ हमारे पुराने साहित्य के इतिहास की सामग्री श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी हिन्दी-साहित्य का इतिहास केवल सयोग और सौभाग्यवश प्राप्त हुई पुस्तको के आधार पर नही लिखा जा सकता। हिन्दी का साहित्य सम्पूर्णत लोक-भाषा का साहित्य है। उसके लिए सयोग से मिली पुस्तके ही पर्याप्त नही है। पुस्तको मे लिखी बातो से हम समाज की किसी विशेष चिन्ताधारा का परिचय पा सकते है, पर उस विशेप चिन्ताधारा के विकास में जिन पार्श्ववर्ती विचारो और प्राचारो ने प्रभाव डाला था, वे, बहुत सम्भव है, पुस्तक रुप में कभी लिपिबद्ध हुए ही न हो और यदि लिपिवद्ध हुए भी हो तो सम्भवत प्राप्त न हो सके हो। कबीरदास का बीजक दीर्घकाल तक वुन्देलखड से झारखड और वहां से विहार होते हुए धनौती के मठ मे पडा रहा और बहुत बाद में प्रकाशित किया गया। उसकी रमैनियों से एक ऐसी धर्म-साधना का अनुमान होता है, जिसके प्रधान उपास्य निरजन या धर्मराज थे। उत्तरी उडीसा और झारखड में प्राप्त पुस्तको तथा स्थानीय जातियो की आधार-परम्परा के अध्ययन से यह अनुमान पुष्ट होता है। पश्चिमी वगाल और पूर्वी विहार में धर्म ठाकुर की परपरा अब भी जारी है। इस जीवित सम्प्रदाय तथा उडीसा के अर्द्धविस्मृत सम्प्रदायो के अध्ययन से वीजक के द्वारा अनुमित धर्मसाधना का समर्थन होता है। इस प्रकार कवीरदास का वीजक इस समय यद्यपि अपने पुराने विशुद्ध रूप मे प्राप्त नही है-उसमे वाद के अनेक पद प्रक्षिप्त हुए है-तथापि वह एक जनसमुदाय की विचार-परम्परा के अध्ययन में सहायक है। कवीर का वीजक केवल अपना ही परिचय देकर समाप्त नही होता। वह उस से अधिक है। वह अपने इर्दगिर्द के मनुष्यो का इतिहास बताता है। मैंने अपनी 'कवीरपथी साहित्य' नामक शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली पुस्तक में इसकी विस्तारपूर्वक चर्चा की है। भारतीय समाज ठीक वैसा ही हमेशा नहीं रहा है, जैसा आज है। नये-नये जनसमूह इस विशाल देश में वरावर आते रहे हैं और अपने-अपने विचारोऔर प्राचारो का प्रभाव छोडते रहे है। आज की समाज-व्यवस्था कोई सनातन व्यवस्था नहीं है। आज जो जातियाँ समाज के निचले स्तर में पड़ी हुई है । वे सदा वही रही है, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। इसी प्रकार समाज के ऊपरी स्तर में रहने वाली जातियां भी नाना परिस्थितियो को पार करती हुई वहाँ पहुँची है । इस विराट जनसमुद्र का सामाजिक जीवन काफी स्थितिशील रहा है। फिर भी ऐसी धारापो का नितान्त प्रभाव भी नहीं रहा है , जिन्होने समाज को ऊपर से नीचे तक आलोडित कर दिया है। ऐसा भी एक जमाना था, जब इस देश का एक बहुत बडा जनसमाज ब्राह्मणधर्म को नहीं मानता था। उसकी अपनी अलग पौराणिक परम्परा थी, अपनी समाजव्यवस्था थी, अपनी लोक-परलोक-भावना थी। मुसलमानो के आने के पहले ये जातियां हिन्दू नहीं कही जाती थी। किसी विराट सामाजिक दवाव के फलस्वरुप एक वार समूचे जनसमाज को दो वडे-बडे कैम्पो मे विभक्त हो जाना पडा--हिन्दू और मुसलमान । गोरखनाथ के बारह सम्प्रदायो मे उनसे पूर्व काल के अनेक बौद्ध, जैन, शैव और शाक्त सम्प्रदाय सगठित हुए थे। उनमे कुछ ऐसे सम्प्रदाय, जो केन्द्र से अत्यन्त दूर पड गये थे, मुसलमान हो गये, कुछ हिन्दू । हिन्दी-साहित्य की पुस्तको से ही उस परम शक्तिशाली सामाजिक दवाव का अनुमान होता है। इतिहास में इसका कोई और प्रमाण नही है, परन्तु परिणाम देखकर निस्सन्देह इस नतीजे पर पहुंचना पडता है कि मुसलमानो के आगमन के समय इस देश में प्रत्येक जनसमूह को किसी-न-किसी वडे कैम्प मे शरण लेनी पड़ी थी। उत्तरी पजाब से लेकर वगाल की ढाका कमिश्नरी तक के अर्द्धचन्द्राकृति भूभाग में बसी हुई जुलाहा जाति को देख कर रिजलीने (पीपुल्स प्रॉव इन्डिया, पृ० १२६)अनुमान किया था कि इन्होने कभी सामूहिक रूप में मुसलमानी धर्म स्वीकार किया था। हाल की खोजोसे इस मत की पुष्टि हुई है। ये लोग ना-हिन्दू-ना-मुसलमान योगी सम्प्रदाय के शिष्य थे।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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