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________________ हमारे पुराने साहित्य के इतिहास की सामग्री ६७ साहित्य का इतिहास पुस्तको, उनके लेजको और कवियो के उद्भव और विकास की कहानी नहीं है। वह वस्तुत अनादि काल-प्रवाह में निरन्तर प्रवहमान जीवित मानव-समाज की ही विकास-कथा है। अन्य और ग्रन्थकार, कवि और काव्य, सम्प्रदाय और उनके आचार्य उस परम शक्तिशाली प्राणवारा की और सिर्फ इशारा भर करते हैं। वेही मुख्य नहीं है। मुख्य है मनुष्य । जो प्राणवारा नाना अनुकूल-प्रतिकूल अवस्थानों से बहती हुई हमारे भीतर प्रवाहित हो रही है उसको समझने के लिए ही हम साहित्य का इतिहास पढते हैं। सातवीं-आठवीं शताब्दी के वाद से लेकर तेरहवी-चौदहवी शताब्दी का लोकभाषा का जो साहित्य वनता रहा, वह अविकाश उपेक्षित है । वहुत काल तक लोगो का व्यान इधर गया ही नहीं था। केवल लोकसाहित्य ही क्यो, वह विशाल शास्त्रीय साहित्य भी उपेक्षित ही रहा है, जो उस युग की समस्त साहित्यिक और मास्कृतिक चेतना का उत्स था। काश्मीर के शैव साहित्य, वैष्णव सहिताओ का विपुल साहित्य, पाशुपत शैवो का इतस्ततो विक्षिप्त साहित्य, तन्वतन्य, जैन और वौद्ध अपभ्रम ग्रन्य अभी केवल शुरू किये गये है। श्रेडर ने जमकर परिश्रम न किया होता तो सहितायो का वह विपुल साहित्य विद्वन्मडली के सामने उपस्थित ही नहीं होता, जिसने वाद में सारे भारतवर्ष के साहित्य को प्रभावित किया है। मेरा अनुमान है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने के पहले निम्नलिखित साहित्यो की जाँच कर लेना वडा उपयोगी होगा। इनकी अच्छी जानकारी के विना हम न तो भक्ति-काल के साहित्य को समझ __ सकेंगे और न वीरगाथा या रीतिकाल को। १ जैन और वौद्ध अपभ्रश का साहित्य । २ काश्मीर के शवो और दक्षिण तथा पूर्व के तान्त्रिको का साहित्य । ३ उत्तर और उत्तर-पश्चिम के नाथो का साहित्य । ४ वैष्णव आगम। ५ पुराण । ६ निवन्वग्रन्थ । . ७ पूर्व के प्रच्छन्न वौद्ध-वैष्णवो का साहित्य । ८ विविध लौकिक कथानी का साहित्य । जैन अपभ्रश का विपुल साहित्य अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है । जितना भी यह साहित्य प्रकाशित हुआ है, उतना हिन्दी के इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जोइन्दु (योगीन्द्र) और रामसिंह के दोहो के पाठक स्वीकार करेंगे कि क्या वौद्ध, क्या जैन और क्या गैव (नाथ) सभी सम्प्रदायो में एक रूढिविरोधी और अन्तर्मुखी साधना का दाना दसवीं शताब्दी के बहुत पहले बंध चुका था। वौद्ध अपभ्रंश के ग्रन्थ भी इसी बात को सिद्ध करते हैं। योग-प्रवणता, अन्तर्मुखी साधना और परम प्राप्तव्य का शरीर के भीतर ही पाया जा सकना इत्यादि वाते उस देशव्यापी मावना का केन्द्र थी। यही वातें आगे चलकर विविध निर्गुण सम्प्रदायो में अन्य भाव से स्थान पा गई । निर्गुण साहित्य तक ही यह साहित्य हमारी सहायता नहीं करेगा। काव्य के रूपो के विकास और तत्कालीन लोकचिन्ता का भी उससे परिचय मिलेगा। राहुल जी जैसे विद्वान तो स्वयम्भू की रामायण को हिन्दी का सबसे श्रेष्ठ काव्य मानते हैं। यद्यपि वह अपभ्रश का ही काव्य है, परन्तु महापुराण आदि ग्रन्यो को जिसने नही पढा, वह सचमुच ही एक महान् रसस्रोत से वचित रह गया। रीतिकाल के अध्ययन में भी यह साहित्य सहायक सिद्ध होगा। काश्मीर का शैव नाहित्य अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दी-साहित्य को प्रभावित करता है । यद्यपि श्री जगदीश वनर्जी और मुकुन्दराम गास्त्री आदि विद्वानो के प्रयत्न से वह प्रकाश में आया है, फिर भी उसकी ओर विद्वानी का जितना ध्यान जाना चाहिए उतना नहीं गया है। हिन्दी में पं० वलदेव उपाध्याय ने इसके और तन्त्रो के तत्त्ववाद का मक्षिप्त रूप में परिचय कराया है, पर इस विषय पर और भी पुस्तकें प्रकाशित होनी चाहिए। यह आश्चर्य की बात है कि
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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