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________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय लौकिक सस्कृत मे 'गो' शब्द • ऊपर हमने दिखलाया है कि वैदिक साहित्य मे 'गो' शब्द के जो विभिन्न अर्थ लिये जाते है उनका मौलिक आधार गो-पशु ही है । लौकिक सस्कृत के कोशो में उपर्युक्त अर्थों के अतिरिक्त 'गो' शब्द के और भी अनेक अर्थ दिये गये है । यहाँ हम केवल अमरकोश को ही लेते है। उसके अनुसार गो के अर्थ निम्नलिखित है स्वर्गेपुपशुवाग्वजदिड्नेत्रघृणिभूजले । .. लक्ष्यदृष्ट्या स्त्रिया पुसि गो (३।३।२५) अर्थात् 'गो' शब्द के अर्थ है--(१) स्वर्ग, (२) वाण, (३) पशु, (४) वाक्, (५) वज़, (६) दिशा, (७) नेन, (८) किरण, (९) पृथ्वी, और (१०) जल। इनमें से स्वर्ग (=वैदिक द्युलोक), वाल, किरण और पृथ्वी अर्थ तो उपर आ ही चुके है । पशु से अभिप्राय प्राय गो मे ही लिया जाता है। यदि इसका अभिप्राय पशुमात्र से है तव भी इसका आधार गो-भूयस्त्व पर ही होगा। वाण अर्थ का विकास उसी तरह गीणवृत्ति से हुआ होगा जिस तरह वाण की ज्या के लिए 'गो' शब्द का प्रयोग, यास्काचार्य के अनुसार, हम ऊपर दिखला चुके है । अनिरूप इन्द्र का 'वज' मायु (-गो का शब्द) करने वाली माध्यमिका वाक् का ही एक रूप है। दिशा के अर्थ का गौ के साथ साक्षात् या असाक्षात् सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है। हो सकता है कि इसका विकास किरण या धु या आदित्य इन अर्थों के द्वारा परम्परया हुआ हो। नेत्र अर्थ का प्राधार स्पष्टतया गौ जैसे गोचरभूमि मे जाती है उसी तरह नेन्द्रिय के स्वविपय की ओर जाने पर है। इन्द्रियो के विपयो को 'गोचर' कहने का मूल-कारण भी यही है। इसी आधार पर पिछले सस्कृत साहित्य में इन्द्रिय-मात्र के लिए 'गो' शब्द का व्यवहार हुआ है। उसी अर्थ को लेकर 'गोस्वामी' शब्द प्रचलित हुआ है। जल के अर्थ का मूल वादलरूपी वृत्र के द्वारा जल-रूपी गोप्रो के अवरोध की उपर्युक्त कल्पना ही प्रतीत होती है। ' इसी प्रकार के कुछ और अर्थ भी 'गो' शब्द के पिछले काल के सस्कृत के कोशो में मिलते है। उनका विकास. भी प्राय उपरि-निर्दिष्ट पद्धति से सहज ही दिखलाया जा सकता है। पर लौकिक सस्कृत के कोशो में दिये हुए अर्थों के विषय में सबसे मुख्य आपत्ति यह है कि उनका साहित्यिक प्रयोग दिखाना कठिन है। इसीलिए उन अर्थों का हमारी दृष्टि में महत्त्व, कम है। 'गो' शब्द के ऐतिहासिक महत्त्व को ठीक समझने के लिए उससे बने हुए अनेक शब्दो पर विचार करना भी आवश्यक है, पर विस्तार-भय से उसका इस लेख में समावेश करना सम्भव नहीं है। फाशी] - - - - -
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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