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________________ 'गो' शब्द के प्रयों का विकास ६३ या 'अन्तरिक्षस्थानीया देवता' के लिए भी 'गो' शब्द का प्रयोग वेद में प्राय देखने में आता है । इस अर्थ में 'गौ' का निर्वचन निघण्टु के टीकाकार देवराज यज्वन् ने "गच्छति यज्ञेष्वाहूता, गीयते 'स्तूयते वा" (जो यज्ञो में आहूत होकर जाती है या जो गाई जाती है या जिसकी स्तुति की जाती है) इस प्रकार दिया है । पर हमारी सम्मति मे तो वाणी (या माध्यमिका वाक् ) के लिए भी 'गो' शब्द के प्रयोग के मूल में वही गोपशु की कल्पना है । इस बात की पुष्टि अनेकानेक उदाहरणो से की जा सकती है, जैसे- “ गौरमीमेदनु वत्सम् हिडुकृणोत्. सृक्वाणम् अभिवावशाना मिमाति मायुम्" ( ऋ० १११६४/२८ ) । अर्थात् रसो को रश्मियो के द्वारा हरण करने वाले वत्सरूपी सूर्य के प्रति गौ (माध्यमिका वाक् ) हुकार करती है और (गौ की तरह) शब्द करती है | "उपह्वये सुदुर्धा धेनुम्" (ऋ० १|१६४।२६) । अर्थात्, मैं अच्छा दूध देने वाली माध्यमिका वाक् (रूपी गौ) को बुलाता हूँ । "दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु" (ऋ० ८।१००।११) । अर्थात्, दूध देने वाली सुस्तुता वाक् रूपी धेनु हमारे पास श्रावे । इस प्रसग में यास्काचार्य का कहना है कि " वागर्थेषु विधीयते" (११।२७), अर्थात् नाना प्रकार के श्रर्थों को वाणी द्वारा ही प्रकट किया जाता है । "अवेन्वा चरति माययैष वाच शुश्रुव अफलामपुष्पाम्" (ऋ० १०/७११५ ) इसकी व्याख्या में यास्काचार्य कहते है - 'नास्मै कामान् दुग्धे वाग्दोह्यान् देवमनुप्यस्थानेषु यो वाच श्रुतवान् भवत्यफलामपुष्पाम्” (१।२०), अर्थात् जो विना समझे वाणी को सुनता है उसके लिए वाणी रूपी गो लौकिक या पारलौकिक कामना को नही दुहती । गतपथब्राह्मण ( १४ | ८ | ६ | १ ) में स्पष्टतया वागुरुपी गौ के चार स्तनो का वर्णन किया है - "वाच घेनुमुपासीत तस्माश्चत्वार स्तना" इत्यादि । ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि अर्थरूपी दुग्ध के द्वारा नाना मनोरथो की पूर्ति करने के कारण ही वाणी मे गो-पशु की कल्पना मन्त्र- द्रष्टा ऋषियो ने की थी । यही वात महाकवि भवभूति ने "कामान् दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मी धेनु घीरा सूनृता वाचमाहु" (उत्तररामचरित) इन शब्दो में प्रकट की है । माध्यमिका वाक् में गौ के साम्य को कल्पना का श्राधार एक और भी हो सकता है । प्राचीन वैदिक काल मे आदान-प्रदान का मुख्य सावन होने से गौ ही मुख्य घन समझा जाता था । इसलिए गौओ के लिए युद्धो का वर्णन और शत्रुओ द्वारा उनके अपहरण की कथाएँ वैदिक साहित्य तथा महाभारत में भी पाई जाती है । ऐसा प्रतीत होता है कि मेघरूपी वृत्र के द्वारा अवरुद्ध की हुई जलरूपी गोश्रो की परिचायक होने से कदाचित् माध्यमिका वाक् का वर्णन भी गौ के रूप में वेद में किया गया है। जो कुछ हो, ऊपर दिये हुए उदाहरणो से, जिनमें वत्स (गौ का बछडा ), मायु (= गौ का विशेप शब्द), वावशाना ( = गौ का शब्द ) जैसे शब्दो के साथ माध्यमिका वाक् का 'गो' शब्द से वर्णन किया गया है, यह निसन्देह सिद्ध हो जाता है कि माध्यमिका वाक् में गोत्व का व्यवहार गो-पशु-मूलक ही है । ऊपर हमने कहा है कि स्तुति के लिए भी 'गो' शब्द का प्रयोग होता है । इसका कारण स्पष्ट है । वैदिक मन्त्रो में जिस वाक् का वर्णन है वह प्राय स्तुतिरूप ही है । अत 'गौ' का अर्थ वाक् के साथ-साथ स्तुति भी देखा जाता है । गौ- स्तोता 1 निघण्टु में स्तोतावाची १३ शब्दो में 'गो' भी दिया है । इस अर्थ में इसकी व्युत्पत्ति निघण्टु के टीकाकार ने " गीयन्ते स्तूयन्तेऽनेन देवता " ( = जिसके द्वारा देवताओ की स्तुति की जाती है) इस प्रकार दी है । पर इस अर्थ के जो उदाहरण टीकाकार ने दिये है वहाँ स्तोता का अर्थ श्रावश्यक नहीं दीखता । इसलिए इस अर्थ को उदाहरणो द्वारा सिद्ध करना कठिन है । तिस पर भी, यदि इस श्रर्थ को मान ही लिया जावे तो भी उसका कारण वही है जो गौ के स्तुति अर्थ का ऊपर हमने दिखलाया है । P
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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