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________________ ॐॐॐ ब्रह्मविलास में ठाणजुयाण अधम्मो, पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी ॥ छाया जह पहियाणं, गच्छंता व सो धरई ॥ १८ ॥ ४० जीव अरु पुग्गलको थितिसहकारी होय, ऐसो हैं अधर्मद्रव्य लोकताई हद है । जैसें कोऊ पथिक सुपंथमध्य गौन करे, छायाके समीप आय बैठे नेकु तद है । पैं यों नहीं जु पंथीको राखतु बैठाय छाया, आपुने सहज बैठे बाको आश्रपद है । तैसें जीव पुद्गलको अधर्मास्तिकाय सदा, होत है सहाय 'भैया' थितिसमें जद है ॥ १८ ॥ अवगासदाणजोग्गं, जीवादीणं वियाण आयासं ॥ जेहं लोगागासं, अल्लोगागासमिदि दुविहं ॥ १९ ॥ जीव आदि पंच पदार्थनिको सदाही यह, देत अवकाश तातें आकाश नाम पायो है । ताके भेद दोय कहे एक है अलोकाकाश, दूजो लोकाकाश जिन ग्रंथनिमें गायो है ॥ जैसें कहूं घर होय तामें सब बसें लोय, तातैं पंच द्रव्यहूको सदन बतायो है । याहीसबै रहै पै निजनिज सत्ता गहै, यातैं परें और सो अलोक ही कहायो है ॥ १९ ॥ aba धम्माधम्मा कालो, पुग्गलजीवा य संति जावदिये ॥ आयासे सो लोगो, तत्तो परदो अलोगुत्तो ॥ २० ॥ जितने आकाशमाहिं रहैं ये दरबपंच, तितने अकाशको जु लोकाकाश कहिये । धर्मेद्रव्य अधर्मद्रव्य कालद्रव्य पुद्गल, -द्रव्य जीव द्रव्य एई पांचों जहाँ लहिये | इनतै अधिक कछु और जो विराज रह्यो, नाम सो अलोकाकाश ऐसो सरदहिये । देख्यो ज्ञान (१) 'अलोगागास' ऐसा भी पाठ है।
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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