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________________ ४१ वंतन अनंतज्ञान चक्षुकरि, गुणपरजाय सो सुभाव शुद्ध ग हिये ॥ २० ॥ 20-2 द्रव्यसंग्रह. परिवहरूवो, जो सो कालो हवेह ववहारो ॥ परिणामादिलक्खी, वहणलक्खो य परमठ्ठो ॥ २१ ॥ सर्वद्रव्यको प्रवर्त्तावन समरथ, सोई कालद्रव्य बहुभेदभाव राजई । निज निज परजाय विषै परणवै यह, कालकी सहाय पाय करें निज काजई ॥ ताही कालद्रव्यके विराजरहे भेद दोय, एक व्यवहार परिणाम आदि छाजई । दूजो परमार्थकाल निश्चयवर्त्तना चाल, कायतें रहित लोकाकाशलों सुगाजई ॥ २१ ॥ 1 लोयायास पदेसे, इक्केके जेठिया हु इक्केका । रयणाणं रासीमिव ते कालाणू असंखदव्वाणि ||२२|| लोकाकाशके जु एक एक परदेश विषै, एक एक काल अणु सुविराज रहे हैं । ताँत काल अणुके असंख्य द्रव्य कहिय तु, रतनकी राशि जैसे एक पुंज लहे हैं ॥ काहुसों न मिलै कोई रत्नजोत दृष्टि जोई, तैसें काल अणु होय भिन्नभाव गहे हैं । आदि अंत मिल नाहिं वर्त्तना सुभावमांहि, समै पल महूर्त्त परजाय भेद कहे हैं ॥ २२ ॥ Fab vedot ate Soapta एवं छन्भेयमिदं, जीवाजीवप्पभेददो दब्बं । उत्तं कालवित्तं, णायव्वा पंच अस्थिकाया दु ॥ २३॥ दोहा. जीव अजीवहि द्रव्यके, भेद सुपटूविध जान । तामें पंच सु काय धर, कालद्रव्य विन मान ॥ २३ ॥ ( १ ) 'जमराजके' ऐसा भी पाठ है। as de de de de de de de 25 aavanee pa
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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