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________________ Doordproconotoranapraordinatordpootocom/ocommaps/90000000uprana PROPRIAnnapipaparwASOWAPPEARROWAREE ब्रह्मविलासमें mmmmmmmmm...morrorreniram जो मन सुलटै आपको, तौ. सूझै सव सांन ॥ जो उलटै संसारको, तो मन सूझै कांच ॥५॥ सत असत्य अनुभय उभय, मनके चार प्रकार ॥ दोय झुकै संसारको, दै पहुंचावै पार ॥ ६॥ जो मन लागै ब्रह्मको, तो सुख होय अपार ॥ जो भटकै भ्रम भावमें, तो दुख पार न वार ॥७॥ मनसो बली न दूसरो, देख्यो इहि संसार ॥ तीन लोकमें फिरत ही, जातन लागै वार ॥ ८॥ मन दासनको दास है, मन भूपनको भूप ॥ . मन सब बातनि योग्य है, मनकी कथा अनूप ॥९॥ मन राजाकी सैन सब, इन्द्रिनसे उमराव ॥ रात दिना दौरत फिरै, करै अनेक अन्याव ॥१०॥ इन्द्रियसे उमराव जिहँ, विषय देश विचरंत ॥ भैया तिह मन भूपको, को जीत विन संत ॥११॥ मन चंचल मन चपल अति, मन बहु कर्म कमाय ॥ मन जीते विन आतमा, मुक्ति कहो किम थाय ॥१२॥ मनसो जोधा जगतमें, और दूसरों नाहि ॥ ताहि पछारै सो. सुभट, जीत लहै जग माहि ॥ १३॥ मन इन्द्रिनको भूप है, ताहि करै जो जेर ॥ सो. सुख पावे.. मुक्तिके,. यामें कछु न फेर ॥१४॥ जब मन मुद्यो ध्यानमें, इंद्रिय भई निराश ॥ तब इहः आतम ब्रह्मने, कीने निज परकाशः॥ १५॥ ‘मनसोः मूरख. जगतमें, दूजो. कौन कहायः॥ सुख समुद्रको छाडके, विषके बनमें जाय ॥ १६॥ WORGRO/ARORRUPERPROSPARRRORMERPROGRAM ravenanaSEAGanapranioravenuprapanielavpranavranipranaprapanoramapan
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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