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________________ RRRRRRRRROPoweSMPORTANAMANCERUT १२१२ ब्रह्मविलासमे. ARMA So espeecodogocotoco Secospooseebee bepcocbetvao bepcocbep google GeoGeekbegrets सत जैनधर्म जयवंत जग, प्रगट परम पद पेखिये। भैया' त्रिकाल जिनधर्मत, सुख अनंत सव लेखिये ॥४॥ कल्पवृक्ष जिनधर्म, इच्छ संव पूरै मनकी । चिंतामन जिनधर्म, चिंत सव-टार जनकी ।। पारस सो जिनधर्म, करै लोहादिक कंचन । काम धेनु जिनधर्म, कामना रहती रंच न ॥ है जिनधर्म परमपद एक लख, सुख अनंत जहां पाइये। 'भैया' त्रिकाल जिनधर्मत, मुक्तिनाथ तोहि गाइये ॥५॥ उदित तेजपरताप, होत दिनदिन जयकारी। तम अज्ञान विनाश, आश निज पर अधिकारी ॥ सवको शीतल करे, उष्ण क्रोधादिक टार। सदा अमिय वरपंत, शांत रस अति विस्तारै ।। 'भैया' चकोर अंबुज भविक, सब प्राणिनको सुख करें। सो जैनधर्म जग चंद सम, सेवत दुख संकट टरै ॥६॥ जैनधर्म विन जीव ! जीत है है नहिं तेरी। __ जैनधर्म विन जीव! रीत किन करै घनेरी ॥ जैनधर्म विन जीव ! ज्ञान चारित कहु नाहीं। जैनधर्म विन जीव! प्रकृति पर जाह न गाही॥ इहि जैनधर्म विन जीव! तुहै, दया उभय सूझे न हग । 'भैया' निहार निज घट विषै, जैनधर्म सोई मोक्षमग ॥७॥ जैनधर्म विन जीव ! तोहि शिवपंथ न सूझै। जैनधर्म विन जीव! आप परको नहिं बझै ॥. जैनधर्म विन जीव ! मर्म निजको नहिं पावै। . जैनधर्म विन जीव! कर्मगति दृष्टिन आवै॥ Tranamama/RanweRorwarwomareewala RepressanswabuprasannadanGRATub/sosdoesNRVDsbanGorbasnupasabVON
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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