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जिनधर्मपचीसिका.
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संवत सत्रहसै पंचास । जेठशुदी पंचमि परकाश ॥ भैया चंदत मनहुल्लास । जयजय मुकतिपंथ सुखवास ॥ २५ ॥ इति छियालीसदोषरहित आहारशुद्धि चौपड़े.
अथ जिनधर्मपचीसिका लिख्यते । दोहा. प्रगट देव परमातमा, चिदानंद भगवान ॥ चंदत हों तिनके चरन, नाय शीस धर ध्यान ॥ १ ॥
छप्पय.
धन्य धन्य जिनधर्म, जासु दया. उभयविधि । धन्य धन्य जिनधर्म, जासुमहिं लखै आपनिधि ॥ धन्य धन्य जिनधर्म, पंथशिवको दरसावै । धन्य धन्य जिनधर्म, जहाँ केवल पद पावै ॥ पुनि धन्य धन्य जिनधर्म यह, सुख अनंत जहाँ पाइये । 'भैया' त्रिकाल निजघटविषै, शुद्ध दृष्टि घर घ्याइये ॥ २ ॥
जैनधर्मको मर्म, दृष्टि समकिततें सूझै । जैनधर्मको मर्म, मूढ कैसे कर बूझे ॥ जैनधर्मको मर्म, जीव शिवगामी पावै । जैनधर्मको मर्म, नाथ त्रिभुवन को गाँवै ॥ यह जैनधर्म जगमें प्रगट, दया दुहं जग पेखिये । 'भैया'सुविचक्षन भविक जन, जैनधर्म निज लेखिये ॥ ३ ॥
जैनधर्म जयवंत, अंत जाको नहिं कबहू ।
जैनधर्म जयवंत, संत प्राणी हैं: अवहू ॥ जैनधर्म जयवंत, जंत सबको सुखकारी ॥ जैनधर्म जयवंत, तंत सबको अधिकारी ॥ :
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