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________________ प्रथम काण्ड : गाथा-५० २९ નીવ ગીર પુઇ દ્રવ્યની તકોતતા ફેરળ સે વસે શાસ્ત્રીય ___ व्यवहार होते है इसका कथन-- एवं 'एगे आया एगे दंडे य होइ किरिया य' । करणविससेण यतिविजोगसिद्धी वि अविरुद्ध। ॥ ४६॥ अर्थ ऐसा होनेसे 'एक आत्मा, एक दण्ड और एक क्रिया' ऐसा व्यवहार सिद्ध होता है, तथा करणविशेषके कारण विविध योगको सिद्धि भी अविरुद्ध है। विवेचन स्थाना। आदि शास्त्रीमे 'आत्मा एक है, दण्ड एक है, क्रिया एक है' ऐसा भी व्यवहार हुआ है। इसी तरह आत्मामे योग तीन प्रकार का है ऐसा भी शास्त्रकयन है। यह सब जीव और पुद्गल द्रव्यको अत्यन्त भिन्न मानने से नही घट सकता, क्योकि दण्ड अर्थात् मन-वचन-काया और ये तीन तो पुद्गल-स्कन्धरूप होनेसे वस्तुत अनेक पुद्गल द्रव्य है। इसी भांति क्रिया भी मन, वचन एव शरीरके __ आश्रित होनेसे अनेक है । अत इन अनेकोको एक कसे कह सकते है ? इसी प्रकार योग अर्थात् स्पन्दमान आत्मवीर्य, इसे विविध भी कसे कह सकते है ? यह वीर्य आत्मरूप होने से या तो एक कहा जा सकता है या फिर शक्तिके रूपमे अनन्त कहा जा सकता है, परन्तु उसे त्रिविध तो कसे कह सकते है ? ___ परन्तु आत्मा और पुद्गल द्रव्य का परस्पर अभेद मानने से ऊपर के प्रश्नमें सूचित विरोवके लिए अवकाश ही नहीं रहता। मानसिक, वाचिक एवं कायिक द्रव्यके अनेक होनेपर भी तया तदाश्रित क्रियाओके अनेक होनेपर भी एक मात्मतत्वके साय सम्बद्ध होने से उन द्रव्यो एक क्रियाओको भी जो 'एक दण्ड, एक क्रिया' ऐसा कहा है, वह घटित होता ही है। इसी प्रकार मन, वचन एव शरीरू५ विविध पुद्गलात्मक करण- साधनके सम्वन्यसे आत्मवीर्यको भी विविध योगरूप कहनमे कोई वाव नही है। अमुक तत्त्व बाह्य है और अमुक आभ्यन्तर है ऐसे विभागके बारेमे स्पष्टीकरण ण य बाहिरी भावो अब्भतरो य अस्थि समयम्मि । णोइंदियं पुण पडु५ होइ अभंतरविससो ॥ ५० ॥ अर्थ सिद्धान्त बाह्य और आभ्यन्तर भाव ऐसा भेद नही है, । परन्तु नोइन्द्रिय अर्थात् मानक कारण आभ्यन्तरताका विशेप है। सहर
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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