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________________ २८ सन्मति-प्रकरण यौवन, वार्वस्य आदि भिन्न-भिन्न अवस्याएँ जिसपुरुषमे भेद दिखलाने के लिए ली गई हैं वे तो देहगत होने से देहका भेद दिखला सकती है, और भूत दोपोका स्मरण अथवा भावी गुणकी स्पृहा आदि जो भाव पुरुषमे अभेद दिखलाने के लिए लिये गये है, वे तो मात्र जीवके ही धर्म होनेसे उसीका अभेद दिखला सकते है। अतएव पुरुपके दृष्टान्तमे जो भेद कहा वह तो उसकी देहमे है और जो भेद कहा वह तो देहगत जीवमे है, परंतु किसी पुरु५ नामक एक तत्त्वमे भेदाभेद नहीं है। तो फिर इस दृष्टान्तको लेकर आत्मद्रव्यमे भेदाभेद किस तरह सावित किया जा सकता है?' ऐसी शकाका उत्तर देने के लिए अन्यकार कहते है कि जीव और देह दूध-पानीको भांति एक-दूसरमे ऐसे ओतप्रोत है और एक-दूसरेके प्रभावसे ऐसे वद्ध है कि उन दोनोको 'यह देह और वह जीव' ऐसा देशकृत भाग करके अलग किया ही नही जा सकता। इतना ही नही, जिन वाल्य, यौवन आदि अवस्याओको और वर्ण, गन्ध आदि गुणोको देहवर्म माना जाता है, वे मात्र देह के ही धर्म है और उन धर्मों पर ! जीवको कोई भी असर नही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसी तरह जिन शान, स्मरण, सुख, दुःख आदि भावोको जीवके पर्यायके रूपमे लिया जाता है वे पर्याय मात्र जीवके है और उन पर देहका कोई भी असर नही है ऐसा नही कहा जा सकता। वस्तुत ससारी जीवमे शरीरगत या आत्मगत जिन पर्यायोका अनुभव होता है वे सव कर्मपुद्गल और जीव उभयके सयोगके परिणाम है। अत उन्हें किसी एकके न मानकर उभयके ही मानना चाहिए। इसलिए तयाकथित देहगत पर्याय पुद्गलके अतिरिक्त जीवके भी है और तथाकथित जीवगत पर्याय जीवके होनेके अतिरिक्त देहके भी है। ऐसा होने से बाल्य, यौवन आदि भाव देहकी भांति तद्गत जीवमे भी भेद दिखलाते है, और भूतस्मरण आदि भाव जीवके अतिरिक्त उसके आश्रयभूत शरीरमे भी अभेद दिखलाते हैं। अत जीव एव देह उभयरू५ पुरुषमे भेदाभेद है, ऐसा माननमे कोई बाधा नही है। जीव और उसके आश्रयभूत देहकादेशकृत विभाग शक्य न होने पर भी तात्विक दृष्टि से दोनोके लक्षण भिन्न होनेसे दोनो भिन्न तो है ही। ससार-अवस्याके सभी जीवपर्याय कर्मावान होनेसे और सभी कर्मपुद्गलकृत सूक्ष्म-स्यूल पर्याय जीवाधीन होने से जीव एव कर्मशरीरके जितने पर्याय हो सकते है, वे सब अविभक्त रूपसे ओत-प्रोत जीव और कर्म दोनोके मानने चाहिए। इस कारण पुरु५०५ दृष्टान्त तथा आत्मद्रव्यरूप दान्तिकमे अपेक्षित साम्य है ही। आत्मा अमूर्त है, तो फिर मूर्त कर्मपुद्गलके साथ उसका सम्बन्ध कसे हो सकता है? इस प्रश्नका उत्तर वस्तुस्वभावमें है।
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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