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________________ ३७२ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला [अ० ३, मोचकपरमाण्वन्तरसंयुज्यमानपरमाणुवद्वन्धमोक्षयोद्वैतानुवर्ति ४४। निश्चयनयेन केवलबध्यमानमुच्यमानबन्धमोक्षोचितस्निग्धरूक्षत्वगुणपरिणतपरमाणुवद्वन्धमोक्षयोरद्वैतानुवर्ति ४५। अशुद्धनयेन घटशरावविशिष्टमृण्मात्रवत्सोपाधिस्वभावम् ४६। शुद्धनयेन केवलमृण्मात्रवन्निरुपाधिस्वभावम् ४७ । तदुक्तम्-“जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा । जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ॥" "परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सव्वहा वयणा । जइणाणं पुण वयणं सम्मं खु कहंचि वयणादो ॥" एवमनयां दिशा प्रत्येकमनन्तधर्मव्यापकानन्तनयैर्निरूप्यमाणमुद्न्वद्वदन्तरालमिलद्धवलनीलगाङ्गयामुनोदभारवदनन्तधर्माणां परस्परमंतद्भावमात्रेणाशक्यविवेचनत्वादमेचकस्वभावैकधर्मव्यापकैस्थरूपेण क्षोभं गच्छत्ययं जीवस्तावत्कालं निजशुद्धात्मानं न प्राप्नोति इति । स एव वीतरागसर्वज्ञप्रणीतोपदेशवत् एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तमनुष्यदेशकुलरूपेन्द्रियपटुत्वनिाध्यायुले लिया, उसी प्रकार क्रिया-कष्टके विना ही वस्तुकी सिद्धि होती है । व्यवहारनयकर यह आत्मा बंध मोक्षावस्थाकी द्विविधामें प्रवर्तता है, जैसे एक परमाणु दूसरे परमाणुसे बँधता है, और खुलता है, उसी प्रकार यह आत्मा बंध मोक्ष अवस्थाको पुद्गलके साथ धारण करता है। निश्चयनयकर परद्रव्यसे बंध मोक्षावस्थाकी द्विविधाको नहीं धारण करता, केवल अपने ही परिणामसे बंध मोक्ष अवस्थाको धरता है, जैसे अकेला परमाणु बंध मोक्ष अवस्थाके योग्य अपने स्निग्ध रूक्ष गुण परिणामको धरता हुआ बंध मोक्ष अवस्थाको धारण करता है। अशुद्धनयकर यह आत्मा उपाधिजन्य स्वभावको लिये हुए है, जैसे एक मिट्टी घड़ा, सरवा, आदि अनेक भेद लिये हुए होती है। शुद्धनयकर उपाधि रहित अभेद स्वभावरूप है, जैसे भेदभाव रहित केवल मृत्तिका होती है । इत्यादि अनन्त नयोंसे वस्तुकी सिद्धि होती है। वस्तु अनेक तरह वचन-विलाससे दिखलाई जाती है, जितने वचन हैं, उतने ही नय हैं, जितने नय हैं, उतने ही मिथ्यावाद हैं । जो एक नयको सर्वथा मानें, तो मिथ्यावाद होता है, और जो कथंचित् माना जाय, तो यथार्थ अनेकतारूप सर्व वचन होता है, इसलिये एकान्तपनेका निषेध है। एक ही बार वस्तुको अनेक नयकर सिद्ध करते हैं । यह आत्मा नय और प्रमाणसे जाना जाता है, जैसे एक समुद्र जब जुदी जुदी नदियोंके जलसे सिद्ध किया जावे, तब गंगा यमुना आदिके सफेद नीलादि जलोंके भेदसे एक एक स्वभावको धारता है, उसी प्रकार यह आत्मा नयोंकी अपेक्षा एक एक स्वरूपको धारण करता है। और जैसे वही समुद्र अनेक नदियोंके जलोंसे एक ही है, भेद नहीं, अनेकान्तरूप एक वस्तु है, उसी प्रकार यह आत्मा प्रमाणकी विवक्षासे अनंत स्वभावमय एक द्रव्य है । इस 'प्रकार एक अनेक स्वरूप नय प्रमाणसे सिद्धि होती है, नयोंसे एकस्वरूप दिखलाया जाता है, प्रमाणसे अनेक स्वरूप दिखलाये जाते हैं। इस प्रकार स्यात्पदकी शोभासे गर्भितन'योंके स्वरूपसे और अनेकान्तरूप प्रमाणसे अनंत धर्म संयुक्त शुद्धचिन्मात्र वस्तुका जो पुरुष निश्चय श्रद्धान करते हैं, वे साक्षात् आत्मस्वरूपके अनुभवी होते हैं । इस प्रकार इस आत्मद्रव्यका स्वरूप कहा। आगे उस आत्माकी प्राप्तिका उपाय दिखलाते हैं-यह . आत्मा अनादिकालसे लेकर पुद्गलीककर्मके निमित्तसे मोहरूपी मदिरा (शराव)के पीनेसे मदोन्मत्त हुआ घूमता है, और समुद्रकी तरह अपने में विकल्प-तरंगोंसे महाक्षोभित है।
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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