SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 518
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -प्रवचनसारःरसार्थक्यकारि २९ । कालनयेन निदाघदिवसानुसारिपच्यमानसहकारफलवत्समयायत्त'सिद्धिः ३० । अकालनयेन कृत्रिमोष्मपाच्यमानसहकारफलवत्समयानायत्तसिद्धिः ३१ । पुरुषकारनयेन पुरुषकारोपलब्धमधुकुक्कुटीकपुरुषकारवादिवद्यत्नसाध्यसिद्धिः ३२। दैवनयेन पुरुषकारवादिदत्तमधुकुक्कुटीगर्भलब्धमाणिक्यदैववादिवदयत्नसाध्यसिद्धिः ३३ । ईश्वरनयेन धात्रीहटावलेह्यमानपान्थबालकवत्पारतत्र्यभोक्तृ ३४ । अनीश्वरनयेन स्वच्छन्ददारितकुरङ्गकण्ठीरववत्स्वातन्त्र्यभोक्तृ ३५ । गुणिनयेनोपाध्यायविनीयमानकुमारकवद्गुणग्राहि ३६ । अगुणिनयेनोपाध्यायविनीयमानकुमारकाध्यक्षवत् केवलमेव साक्षि ३७ । कर्तृनयेन रञ्जकवद्रागादिपरिणामकर्तृ ३८ । अकर्तृनयेन खकर्मप्रवृत्तरञ्जकाध्यक्षवत्केवलमेव साक्षि ३९ । भोक्तृनयेन हिताहितान्नभोक्तृव्याधितवत्सुखदुःखादिभोक्तृ ४० । अभोक्तृनयेन हिताहितान्नभोक्तृव्याधिताध्यक्षधन्वन्तरिचरवत् केवलमेव साक्षि ४१ । क्रियानयेन स्थाणुभिनमूर्धजातदृष्टिलब्धनिधानान्यन्धवदनुष्ठानप्राधान्यसाध्यसिद्धिः ४२। ज्ञाननयेन चणकमुष्टिक्रीतचिन्तामणिगृहकोणवाणिजवद्विवेकप्राधान्यसाध्यसिद्धिः ४३। व्यवहारनयेन बन्धकनापि जानातीति ॥ पुनरप्याह शिष्यः-ज्ञातमेवात्मद्रव्यं हे भगवन्निदानीं तस्य प्राप्त्युपायः कथ्यताम् । भगवानाह-सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनवभावनिजपरमात्मतत्त्वसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसंजातरागाद्युपाधिरहितपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतरसाखादानुभवमलभमानः सन् पूर्णमासीदिवसे जलकल्लोलक्षुभितसमुद्र इव रागद्वेषमोहकल्लोलैर्यावदस्खहै, जैसे पंथी बालक धायके आधीन हुआ खान पान क्रिया करता है । अनीश्वरनयकर स्वाधीन भोक्ता है, जैसे स्वेच्छाचारी सिंह मृगोंको विदारणकर खान-पान क्रिया करता है। गुणनयकर गुणोंका ग्रहण करनेवाला है, जैसे उपाध्यायकर सिखाया हुआ कुमार गुणग्राही होता है । अगुणनयकर केवल साक्षीभूत है, गुणग्राही नहीं है, जैसे अध्यापकसे सिखलाये हुए कुमारका रक्षक पुरुष गुणग्राही नहीं होता। कनियकर रागादि परिणामोंका कर्ता है, जैसे रँगरेज रंगका करनेवाला होता है । अकर्तानयकर रागादि परिणामोंका करनेवाला नहीं है, साक्षीभूत है, जैसे रँगरेज जब अनेक रंग करता है, तब कोई तमाशा देखनेवाला तमाशा ही देखता है, वह कर्ता नहीं होता। भोक्तानयकर सुख दुःखका भोक्ता है। जैसे हित, अहित पथ्यको लेता हुआ रोगी सुख दुःखको भोगता है । अभोक्तानयकर भोक्ता नहीं है, केवल साक्षीभूत है, जैसे हित, अहित पथ्यको भोगनेवाले रोगीका तमाशा देखनेवाला धन्वन्तरी वैद्यका नौकर साक्षीभूत है । क्रियानंयकर क्रियाकी प्रधानतासे सिद्धि होती, जैसे किसी अंधेने महाकष्टसे किसी पाषाणके खंभेको पाकर अपना माथा फोड़ा, वहाँपर उस अंधेके मस्तकमें जो लोहू(रक्त)का विकार था, वह दूर हो गया,इस कारणसे उसकी आखें खुल गई, और उस जगह उसने खजाना पाया, इस प्रकार क्रिया-कष्टकर भी वस्तुकी प्राप्ति होती है । ज्ञाननयकर विवेककी ही प्रधानतासे वस्तुकी सिद्धि होती है, जैसे किसी रत्नके परीक्षक पुरुषने किसी अज्ञानी दीन पुरुषके हाथमें चिंतामणिरत्न देखा,तब उस दीनपुरु.पको बुलाकर अपने घरके कोनेमें से एक मुट्ठी चनेके अन्नकी देकर उसके बदले चिंतामणिरत्न
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy