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________________ ____३६८ . - रायचन्द्रजैनशाखमाला - ननु कोऽयमात्मा कथं चावाप्यतइति चेत्, अभिहितमेतत् पुनरप्यभिधीयते । आत्मा हि तावचैतन्यसामान्यव्याप्तानन्तधर्मादिष्वेकं द्रव्यमनन्तधर्मव्यापकानन्तनयव्याप्येकश्रुतज्ञानलक्षणप्रमाणपूर्वकस्वानुभवप्रमीयमाणत्वात् । तत्तु द्रव्यनयेन पटमात्रवचिन्मात्रम् १। पर्यायनयेन तन्तुमात्रवद्दर्शनज्ञानादिमात्रम् २ । अस्तित्वनयेनायोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्तिसंहितावस्थलक्ष्योन्मुखविशिखवत् । स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावरस्तित्ववत् ३ । नास्तित्वनयेनानयोमयागुणकार्मुकान्तरालवल्संहितावस्थालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत् । परद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्नास्तित्ववत् ४ । अस्तित्वनास्तित्वनयेनायोमयानयोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्त्यगुणकामुंकान्तरालवर्तिसंहितावस्थासंहितावस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत् क्रमतः स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैरस्तित्वनास्तित्ववत् ५ । अवक्तव्यनयेनायोमयानयोमयगुणकार्मुकान्तरालवय॑संहितावस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत् युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैरवक्तव्यम् ६ । अस्तित्वावक्तव्यनयेनायोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्तिसंहितावस्थासंहितावस्थ अत्राह शिष्यः । परमात्मद्रव्यं यद्यपि पूर्व बहुधा व्याख्यातम् । तथापि संक्षेपेण पुनरपि कथ्यतामिति भगवानाह-केवलज्ञानाद्यनन्तगुणानामाधारभूतं यत्तदात्मद्रव्यं भण्यते । तस्य च नयैः प्रमाणेन च परीक्षा क्रियते । तद्यथा-एतावत् शुद्धनिश्चयेन निरुपाधिस्फटिकवत्समस्तरागादिविकल्पोपाधिरहितम् । तदेवाशुद्धनिश्चयनयेन सोपाधिस्फटिकवत्समस्तरागादिविकल्पोपाधिसहितम् । शुद्धसद्भूतव्यवहारनयेन शुद्धस्पर्शरसगन्धवर्णानामाधारभूतपुद्गलपरमाणुवत्केवलज्ञानादि___ जो कोई यह प्रश्न करे, कि यह आत्मा कैसा है ? और इसकी प्राप्ति किस तरह होती है ? तो उसका समाधान पहले भी कर आये हैं, और फिर भी तात्पर्यरूपसे कहते हैंयह आत्मा चैतन्यरूप अनन्त धर्मात्मक एक द्रव्य है, वे अनन्त धर्म अनन्त नयोंसे जाने जाते हैं, अनन्त नयरूप श्रुतज्ञान है । उस श्रुतज्ञानप्रमाणसे अनन्त धर्मस्वरूप आत्मा जाना जाता है, इस कारण नयोंसे वस्तु दिखलाई जाती है। वही आत्मा द्रव्यार्थिकनयकर चिन्मान है, जैसे वस्त्र एक है, और पर्यायार्थिकनयकर वही आत्मा ज्ञान दर्शनादिरूपसे अनेकस्वरूप है, जैसे वही वस्त्र सूतके तंतुओंसे अनेक है। वही आत्मा अस्तित्वनयकर स्वद्रव्य क्षेत्र, काल, भावोंसे अस्तित्वरूप है, जैसे लोहेका वाण अपने द्रव्यादि चतुष्टयकर अस्तित्वरूप है, उसमें लोहा तो द्रव्य है, वह धनुष और डोराके बीचमें रहता है, इससे वह वाणका क्षेत्र है, जो साधनेका समय है, वह काल है, और निशानके सामने है, वह भाव है, इस तरह अपने चतुष्टयकर लोहमई बाण अस्तित्वरूप है, उसी प्रकार स्वचतुष्टयकर आत्मा अस्तित्वरूप है । वही आत्मा नास्तित्वनयकर परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे नास्तित्वरूप है, जैसे वही लोहमई वाण परचतुष्टयसे लोहमयी नहीं है, धनुष और डोराके वीचमें नहीं है, साधनेका समय अन्य नहीं है, और निशानेके सामने नहीं है, ऐसे वही लोहमई वाण परचतुष्टय नयकर नास्तित्वरूप है, उसी प्रकार परचतुष्टयसे आत्मा नहीं है । वही आत्मा अस्तिनास्तित्वनयसे स्वचतुष्टय परचतुष्टयके क्रमसे अस्तिनास्तिरूप है, जैसे वही वाण स्वचतुष्टय परचतुष्टयकी क्रम-विवक्षासे अस्तिनास्तिरूप होता है।
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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