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________________ ३६९ - प्रवचनसारः लक्ष्योन्मुखायोमयानयोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्त्यगुणकार्मुकान्तरालवर्तिसंहितावस्थासंहिता १ वस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत् स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्युगपत् स्वपरद्रव्यक्षेत्र - कालभावैश्चास्तित्ववदवक्तव्यम् ७ । नास्तित्वावक्तव्यनयेनानयोमयागुणकार्मुकान्तरालवर्त्य - संहितावस्थालक्ष्योन्मुखायोमयानयोमयगुण कार्मुकान्तरालवर्त्यगुणकार्मुकान्तरालवर्तिसंहितावस्थासंहितावस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत् परद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्च नास्तित्ववदवक्तव्यम् ८ । अस्तित्वनास्तित्वा वक्तव्यनयेनायोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्तिसंहितावस्थलक्ष्योन्मुखानयोमयागुणकार्मुकान्तरालवर्त्यसंहितावस्थालक्ष्योन्मुखायोमयानयोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्त्यगुणकार्मुकान्तरालवर्तिसंहितावस्था संहितावस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत् स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः परद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्युगपत्स्वपरद्रव्येक्षत्रकालभावैश्चास्तित्वनास्तित्ववदवक्तव्यम् ९ । विकल्पनयेन शिशुकुमारस्थविरैकपुरुषवशुद्धगुणानामाधारभूतम् । तदेवाशुद्धसद्भूतव्यवहारनयेनाशुद्धस्पर्शरसगन्धवर्णाधारभूतव्यणुकादिस्कन्धवन्मतिज्ञानादिविभावगुणानामाधारभूतम् । अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन द्यणुकादि - स्कन्धसंश्लेशबन्धस्थितपुद्गलपरमाणुवत्परमौदारिकशरीरे वीतरागसर्वज्ञवद्वा विवक्षितैकदेहस्थितम् । उपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन काष्ठासनाद्युपविष्ट देवदत्तवत्समवशरणस्थितवीतराग सर्वज्ञवद्वा विववही आत्मा अवक्तव्यनयकर एक ही समय स्वचतुष्टय परचतुष्टयकर अवक्तव्य है, जैसे वही बाण स्वपरचतुष्टयकर अवक्तव्य साधता है । वही आत्मा अस्तिअवक्तव्यनयकर स्वचतुष्टयकर और एक ही बार स्वपरचतुष्टयकर अस्तिअवक्तव्यरूप बाणके दृष्टान्तसे समझ लेना । नास्तिअवक्तव्यनयकर वही आत्मा परद्रव्य, क्षेत्र, काल भावोंकर और एक ही समय स्वपरचतुष्टयकर नास्तिअवक्तव्यरूप बाणके दृष्टान्तसे जान लेना । अस्तिनास्ति वक्तव्यनयकर वही आत्मा स्वचतुष्टयकर परचतुष्टयकर और एक ही बार स्वपरचतुष्टयकर बाण की तरह अस्तिनास्तिअवक्तव्यरूप सिद्ध होता है । विकल्पनयकर वही आत्मा भेद लिये हुए है, जैसे एक पुरुष, कुमार, बालक, जवान, वृद्ध भेदोंसे सविकल्प होता है । अविकल्पनयकर वही आत्मा अभेदरूप है, जैसे वही पुरुष अभेदरूप है । नामनयकर वही आत्मा शब्दब्रह्मसे नाम लेके कहा जाता है । स्थापनानयकर वही आत्मा पुगलका सहारा लेकर स्थापित किया जाता है । जैसे मूर्तीक पदार्थकी स्थापना है । द्रव्यनयकर वही आत्मा अतीत अनागत पर्यायकर कहाजाता है, जैसे श्रेणिकराजा तीर्थंकरमहाराज हैं । भावनयकर वही आत्मा जिस भावरूप परिणमता है, उस भावसे तन्मय हो जाता है, जैसे पुरुपाधीन स्त्री विपरीत संभोग में प्रवर्तती हुई उस पर्यायरूप होती है, उसी प्रकार आत्मा वर्तमान पर्यायरूप होता है । सामान्यनयकर अपने समस्त पर्यायोंमें व्यापी है, जैसे हारका सूत सब मोतियोंमें व्यापी है । विशेषनयकर वही द्रव्य एक पर्यायकर कहा जाता है, जैसे उस हारका एक मोती सब हारों में अव्यापी है । नित्यनयकर धौव्यरूप है, जैसे नट यद्यपि अनेक स्वांग रचता है, तो भी नट एक है, उसी तरह नित्य है । अनित्यनयकर वही द्रव्य अवस्थान्तरकर अनवस्थित है, जैसे नट राम रावणादिके स्वांगकर अन्यका अन्य होजाता है । सर्वगतनयकर सकलपदार्थवर्ती है, जैसे. - प्र० ४७ -
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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