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________________ ३४६ ' - रायचन्द्रजैनशाखमाला - [अ० ३, गा० ५३स्यात् स शुभोपयोगिनः स्वशक्त्या प्रतिचिकीर्षा प्रवृत्तिकालः । इतरस्तु स्वयं शुद्धात्मवृत्तेः समधिगमनाय केवलनिवृत्तिकाल एव ॥ ५२॥ अथ लोकसंभाषणप्रवृत्तिं सनिमित्तविभागं दर्शयति वेजावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्डसमणाणं । • लोगिगजणसंभासा ण जिंदिदा वा सुहोवजुदा ॥५३॥. वैयावृत्त्यनिमित्तं ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानाम् । लौकिकजनसंभाषा न निन्दिता वा शुभोपयुता ॥ ५३॥ कदर्थितम् । केन । रोगेण वा अनाकुलत्वलक्षणपरमात्मनो विलक्षणेनाकुलत्वोत्पादकेन रोगेण व्याधिविशेषेण वा छुधाए क्षुधया तण्हाए वा तृषा वा समेण वा मार्गोपवासादिश्रमेण वा । अत्रेदं तात्पर्यम्-स्वखभावनाविघातकरोगादिप्रस्तावे वैयावृत्त्यं करोति शेषकाले खकीयानुष्ठानं करोतीति ॥ ५२ ॥ अथ शुभोपयोगिनां तपोधनवैयावृत्त्यनिमित्तं लौकिकसंभाषण'विषये निषेधो नास्तीत्युपदिशति-ण णिदिदा शुभोपयोगितपोधनानां न निन्दिता न निषिद्धा । का कर्मतापन्ना । लोगिगजणसंभासा लौकिकजनैः सह संभाषा वचनप्रवृत्तिः सुहोवजुदा वा अथवा सापि शुभोपयोगयुक्ता भण्यते । किमर्थं न निषिद्धा । वेजावञ्चणिमित्तं वैयावृत्त्यनिमित्तम् । केषां वैयावृत्त्यम् । गिलाणगुरुबालवुड्डसमणाणं ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानाम् । अत्र गुरुशब्देन स्थूलकायो भण्यते. अथवा पूज्यो वा गुरुरिति । तथाहि-यदा कोऽपि शुभोपयोगयुक्त आचार्यः सरागचारित्रलक्षणशुभोपयोगिनां वीतरागचारित्रलक्षणशुद्धोपद्यतां वैयावृत्त्यादिक क्रिया करो । यही सेवादिकका समय जानना । भावार्थ-जो मुनि अच्छी तरह शुद्धस्वरूपमें लीन हुए हैं, उनके किसी एक संयोगसे स्वरूपसे चलायमान होनेका कारण कोईएक उपसर्ग आगया हो, तो वह शुभोपयोगी मुनिका वैयावृत्त्यादिकका काल है। उस समय ऐसा कार्य करे, जो उनका उपसर्ग दूर होके स्वरूपमें स्थिरता हो । इससे अन्य जो शुभोपयोगियोंका काल है, वह अपने शुद्धात्मस्वरूपके आचरणके निमित्त है, सेवादिकके निमित्त नहीं। वे मुनि उस समय ध्यानादिकमें प्रवर्तते हैं ॥ ५२ ॥ आगे शुभोपयोगियोंके वैयावृत्त्यादिकके लिये अज्ञानी लोगोंसे भी बोलना पड़ता है, ऐसा भेद दिखलाते हैं-[ग्लानगुरुवालवृद्धश्रमणानां.] रोग पीडित, पूज्य आचार्य, वरों में छोटे, और वरों में बड़े, ऐसे चार तरहके मुनियोंकी [वैयावृत्त्यनिमित्तं] सेवाके लिये [शुभोपयुता] शुभ भावोंकर सहित [लौकिकजनसंभाषा वा] अज्ञानी चारित्रभ्रष्ट जीवोंसे वचनकी प्रवृत्ति करनी (बोलना ) भी [न निन्दिता] निपेधित नहीं की गई है । भावार्थ-जो धर्मात्मा मुनि हैं, वे अज्ञानी लोगोंसे वचनालाप नहीं करते हैं, परंतु किसी समय उन लोगोंसे बोलनेसे जो महामुनीश्वरोंका उपसर्ग दूर हो जावेगा, ऐसा मालूम पड़ जाय,
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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