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________________ ५२.] -- -प्रवचनसारः ३४५ शुद्धेषु जैनेषु शुद्धज्ञानदर्शनप्रवृत्तवृत्तितया साकारानाकारचर्यायुक्तेषु शुद्धात्मोपलम्भेतरसकलनिरपेक्षतयैवाल्पलेपाप्यप्रतिषिद्धा न पुनरल्पलेपेति सर्वत्र सर्वथैवाप्रतिषिद्धा, तत्र तथाप्रवृत्त्याशुद्धात्मवृत्तित्राणस्य परात्मनोरनुपपत्तेरिति ॥ ५१॥ अथ प्रवृत्तेः कालविभागं दर्शयति रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं । दिट्ठा समणं साहू पडिवजदु आदसत्तीए ॥५२॥ रोगेण वा क्षुधया तृष्णया वा श्रमेण वा रूढम् । दृष्ट्वा श्रमणं साधुः प्रतिपद्यतामात्मशक्त्या ॥ ५२ ॥ यदा हि समधिगतशुद्धात्मवृत्तेः श्रमणस्य तत्प्रच्यावनहेतोः कस्याप्युपसर्गस्योपनिपातः सहितं धर्मवात्सल्यम् । यदि किम् । लेवो जदि वि अप्पो "सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ” इति दृष्टान्तेन यद्यप्यल्पलेपः स्तोकसावधं भवति । केषां करोतु । जेण्हाणं (१) निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गपरिणतजैनानाम् । कथम् । णिरवेक्खं निरपेक्षं शुद्धात्मभावनाविनाशकख्यातिपूजालाभवाञ्छारहितं यथा भवति । कथंभूतानां जैनानाम् । सागारणगारचरियजुत्ताणं सागारानागारचर्यायुक्तानां श्रावकतपोधनाचरणसहितानामित्यर्थः ॥ ५१ ॥ कस्मिन्प्रस्तावे वैयावृत्त्यं कर्तव्यमित्युपदिशति-पडिवजदु प्रतिपद्यतां खीकरोतु । कया । आदसत्तीए खशक्त्या । स कः कर्ता । साहू रत्नत्रयभावनया खात्मानं साधयतीति साधुः । कम् । समणं जीवितमरणादिसमपरिणतत्वाच्छ्रमणस्तं श्रमणम् । दिट्ठा दृष्ट्वा । कथंभूतम् । रूढं रूढं व्याप्तं पीडितं दयाभावसे [उपकारं] उपकार अर्थात् यथायोग्य सेवादिक क्रिया [ करोतु] शुभोपयोगी करो, कोई दोष नहीं। [यद्यपि] लेकिन इस शुभाचारसे [अल्पः लेपः] थोडासा शुभकर्म बंधता है, परंतु तो भी दोप नहीं है । भावार्थ-जो यह दयाभावकर परोपकाररूप प्रवृत्ति कही है, वह अनेकान्तसे पवित्र है चित्त जिनका ऐसे उत्तम जैनी यती श्रावकोंमें करनी योग्य है, शुद्धात्मकी प्राप्तिसे अन्य समस्त शुभ फलकी वाञ्छासे रहित सहज ही जो अल्पकर्म लेप भी हो, तो भी अच्छा है, और जो शुद्धात्माकी प्राप्तिसे रहित मिथ्यादृष्टि हैं, उनकी सेवादिक, निषेध की गई है। जो उनकी सेवादिकसे थोड़ा भी कर्मबंध है, तो भी निषेध है, क्योंकि उन मिथ्यादृष्टियोंकी सेवासे न तो अपनेको शुद्धात्म तत्त्वकी प्राप्ति है, और न उनके शुद्धात्म तत्त्वकी रक्षा है, दोनों जगह धर्मकी वृद्धि नहीं है, इससे उसका निषेध है ॥५१॥ आगे किस समय धर्मात्माओंके वैयावृत्त्यादिक क्रिया होती है, यह कहते हैं- [साधुः] शुभोपयोगी मुनि [रोगेण] रोगकर [वा] अथवा [क्षुधया] भूखकर [वा ] अथवा [तृष्णया] प्यासकर [वा] अथवा [श्रमेण ] परीषहादिकके खेदकर [रूढं ] पीडित हुए [श्रमणं ] महामुनीश्वरको [ दृष्ट्वा ] देखकर [ आत्मशक्त्या ] अपनी शक्तिके अनुसार [प्रति प्र० ४४
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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