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________________ ३१८ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० ३, गा० ३२प्रतिषेध्यं तदर्थमेव सर्वथानुगम्यश्च परस्परसापेक्षोत्सर्गापवादविजृम्भितवृत्तिः स्याद्वादः । "इत्येवं चरणं पुराणपुरुषैर्जुष्टं विशिष्टादरैरुत्सर्गादपवादतश्च विचरद्वह्वीः पृथग्भूमिकाः । आक्रम्य क्रमतो निवृत्तिमतुलां कृत्वा यतिः सर्वतश्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम्" ॥३१॥ इत्याचरणप्रज्ञापनं समाप्तम् ।। अथ श्रामण्यापरनाम्नो मोक्षमार्गस्यैकाग्रलक्षणस्य प्रज्ञापनं तत्र तन्मूलसाधनभूते प्रथममागम एव व्यापारयति एयग्गगदो समणो एयरगं णिच्छिदस्स अत्थेसु। णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेहा ॥ ३२॥ प्रवर्तमानोऽपि हरीतकीव्याजेन गुडभक्षणवदिन्द्रियसुखलाम्पट्येन संयमविराधनां करोति तदापि महान् लेपो भवति । ततः कारणादुत्सर्गनिरपेक्षमपवादं त्यक्त्वा शुद्धान्मभावनारूपं शुभोपयोगरूपं वा संयममविराधयन्नौषधपथ्यादिनिमित्तोत्पन्नाल्पसावद्यमपि बहुगुणराशिमुत्सर्गसापेक्षमपवादं स्वीकरोतील्यभिप्रायः ॥ ३१॥ एवं 'उवयरणं जिणमग्गे' इत्यायेकादशगाथाभिरपवादस्य विशेषविवरणरूपेण चतुर्थस्थलं व्याख्यातम् । इति पूर्वोक्तक्रमेण 'ण हि णिरवेक्खो चागो' इत्यादि भी होवे, तो भी रोग खेदादि दशाओंके होनेपर वह मुनि कोमल आचारमें प्रवृत्ति करे, तो दोप नहीं है, ऐसा जानकर जो अति शिथिल (आलसी) होके खेच्छाचारी हुआ आहार विहारमें प्रवर्ते, तो वह संयमका नाश कर असंयमीके समान होवे, उस समय मुनिके तपका अभाव है, ऐसी अवस्थामें महान् कर्म-बंधसे लिप्त होता है। इसलिये जो अपवादमार्गी उत्सर्गअवस्थासे मैत्रीभाव लिए हुए न होवे, तो वह अपवादमार्गी अच्छा नहीं है। इस कारण उत्सर्ग अपवादमें जो विरोध होवे, तो मुनिके संयमकी स्थिरता न हो। इसलिये उत्सर्ग अपवादमें मैत्रीभाव होना योग्य है। भगवानका मत अनेकान्त है, जिस तरह संयमकी रक्षा होवे, उसी तरह प्रवर्ते, 'ऐसा नहीं है, कि संयमका नाश हो, अथवा न हो, परन्तु अपनी एक अवस्थाको नहीं छोड़ना' ऐसा जिनमार्ग नहीं है, जिनमार्ग तो ऐसा है, कि कहीं अकेला अपवाद ही है, कहीं अकेला उत्सर्ग ही है, कहीं उत्सर्ग लिये अपवाद है, और कहीं अपवाद लिये उत्सर्ग है । जिस तरह संयम रहे, उसी तरह अपवादमें विरोध रहित हो । जो महापुरुष हैं, उन्होंने उत्सर्ग अपवादरूप नाना तरह की भूमिको क्रमसे अंगीकार की हैं। उसके बाद उत्कृष्ट दशाको प्राप्त होकर समस्त क्रिया-कांडसे निवृत्त हुए हैं। पश्चात् सामान्य विशेष स्वरूप चैतन्यरूप जो निजतत्त्व उसमें स्थिर हो रहे हैं। इसी क्रमसे अन्य भव्यजीव भी स्वरूपमें गुप्त रहें ।। ३१ ।। इस प्रकार आचार-विधि पूर्ण हुई। आगे एकाग्रतारूप मोक्ष-मार्गका स्वरूप कहते हैं, इस मोक्षमार्गका दूसरा नाम मुनीश्वरपद भी है, चाहे कोई मुनीश्वर कहो, अथवा मोक्षमार्ग कहे, नाममात्रका भेद है, वस्तु-भेद नहीं है । मुनि जो है, वे ज्ञान-दर्शन-चारित्र, : ...
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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