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________________ -प्रवचनसारः ३१.] .. ३१७ दल्प एव लेपो भवति तद्वरमपवादः । देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोरल्पलेपभयेनाप्रवर्तमानस्यातिकर्कशाचरणीभूयाक्रमेण शरोरं पातयति । सुरलोकं प्राप्योद्वान्तसमस्तसंयमामृतभारस्य . तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति । तन्न श्रेयानपवादनिरपेक्ष उत्सर्गः । देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोरल्पलेपत्वं विगणय्य यथेष्टं प्रवर्तमानस्य मृद्वाचरणीभूय संयम विराध्यासंयतजनसमानीभूतस्य तदात्वे तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान् लेपो. भवति तन्न श्रेयानुत्सर्गनिरपेक्षोऽपवादः । अतः सर्वथोत्सर्गापवादविरोधदौस्थित्यमाचरणस्य यदि न प्रवर्तते तदा आर्तध्यानसंक्लेशेन शरीरल्यागं कृत्वा पूर्वकृतपुण्येन देवलोके समुत्पद्यते । तत्र संयमाभावान्महान् लेपो भवति । ततः कारणादपवादनिरपेक्षमुत्सर्ग त्यजति । शुद्धात्मभाव.. नासाधकमल्पलेपं बहुलाभमपवादसापेक्षमुत्सर्ग स्वीकरोति तथैव च पूर्वसूत्रोक्तक्रमेणापहृतसंयमशब्दवाच्येऽपवादे प्रवर्तते तावत्प्रवर्तमानः सन् यदि कथंचिदौषधपथ्यादिसावद्यभयेन व्याधिः व्यथादिप्रतीकारमकृत्वा शुद्धात्मभावनां न करोति तर्हि महान् लेपो, भवति । अथवा प्रतीकारे धारता हुआ उत्सर्गमुनि बहुत अच्छा है, जो कि शरीर-रक्षा करके भी संयमका भंग नहीं होने देता है, और देश कालादिका जाननेवाला अपवादमार्गी मुनि, बाल, वृद्ध, खेद, रोग, अवस्थाओंके वशीभूत होकर आहार विहार क्रिया प्रवर्तता हुआ कोमल आचरणोंको आचरता है, और न प्रमादी हुआ अति कोमल आचरणकर संयमका नाश करता है । जहॉपर संयमका नाश हुआ जानता है, वहाँ कठोर क्रिया भी करता है, अति शिथिल भी नहीं होता । शरीरकी रक्षा करके संयमको पालता है, अल्प बंध भी होता है, ऐसी उत्सर्गअवस्थाको लिये हुए अपवादमार्गी मुनि बहुत अच्छा है, जो कि संयमको भी पालता है, और शरीरको भी डिगने नहीं देता । तथा देश कालादिका जाननेवाला उत्सर्गमुनि, बाल, वृद्ध, रोग, खेद, अवस्थाओंके होनेपर जो अल्प कर्म-बंधके भयसे कोमल आचारको नहीं. आचरण करे, आहार विहार क्रियामें नहीं प्रवर्ते, और मनमें यह जाने, कि मैं इस उत्कृष्ट उत्सर्ग संयमको धारण करता हूँ, मुझको जघन्य दशास्वरूप अपवाद संयम योग्य नहीं है, तथा जो हीन अवस्थाको धारण करूँगा, तो बंध होगा, ऐसा जानकर उत्कृष्ट ही आचारका आचरण करे, तो वह मुनि अति कठोर तप करके शरीरका नाशकर देवलोकमें जाके उत्पन्न होता है, वहाँ संयमरूप अमृतका वमन (उल्टी) करता है, क्योंकि देवपद तपस्याका कारण नहीं है। इसलिये वहाँपर वही जीव महा कर्मबंधसे लिप्त होता है । इस कारण जो उत्सर्गमार्गी अपवादमार्गसे मैत्रीभाव नहीं करता, तो वह उत्सर्गमार्गी अच्छा नहीं है, जो कि शरीरका नाशकर संयमका नाश करता है । तथा जो देश कालादिका जाननेवाला अपवाद मुनि बाल, वृद्ध, खेद, रोग, अवस्थाओंके होनेपर आहार विहार में प्रवृत्ति करे, और मनमें यह समझे, कि सिद्धान्तोंमें कहा है, कि जो अल्प बंध
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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