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________________ १४.] .. -प्रवचनसारः २८७ छेदायतनानि तदभावादेवाछिन्नश्रामण्यम् । अत आत्मन्येवात्मनो नित्याधिकृत्य(१) वासे वा गुरुभ्यो विशिष्टे वासे वा नित्यमेव प्रतिषेधयन् परद्रव्यप्रतिबन्धान् श्रामण्ये छेदविहीनो भूत्वा श्रमणो वर्तताम् ॥ १३॥ अथ श्रामण्यस्य परिपूर्णायतनत्वात् खद्रव्य एव प्रतिबन्धो विधेय इत्युपदिशति चरदि णिबद्धो णिचं समणो णाणम्मि दसणमुहम्मि। . पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो ॥१४॥ ___ चरति निबद्धो नित्यं श्रमणो ज्ञाने दर्शनमुखे । प्रयतो मूलगुणेषु च यः स परिपूर्णश्रामण्यः ॥ १४ ॥ एक एव हि खद्रव्यप्रतिवन्ध उपयोगमार्जकत्वेन मार्जितोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य भूत्वा रागादिरहितनिजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणनिश्चयचारित्रच्युतिरूपच्छेदरहितो भूत्वा । तथाहिगुरुपार्श्वे यावन्ति शास्त्राणि तावन्ति पठित्वा तदनन्तरं गुरुं पृष्ट्वा च समशीलतपोधनैः सह भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भव्यानामानन्दं- जनयन् तपःश्रुतसत्त्वैकत्वसन्तोषभावनापञ्चकं भावयन् तीर्थकरपरमदेवगणधरदेवादिमहापुरुषाणां चरितानि स्वयं भावयन् परेषां प्रकाशयश्च विहरतीति भावः ॥ १३ ॥ अथ श्रामण्यपरिपूर्णकारणत्वात्स्वशुद्धात्मद्रव्ये निरन्तरमवस्थानं कर्तव्यमित्याख्याति-चरदि चरति वर्तते । कथंभूतः णिवद्धो आधीनः, णिच्चं नित्यं सर्वकालम् । सः कः कर्ता । समणो लाभालाभादिसमचित्तश्रमणः । क निबद्धः । णाणम्मि वीतरागसर्वज्ञप्रणीतअथवा उससे दूसरी जगह रहकर [विहरतु] व्यवहार कर्म करे । भावार्थ-जो मुनि अपने गुरुओंके पास रहे, तब तो बहुत अच्छी बात है, अथवा अन्य जगह रहे, तब भी अच्छा है। परंतु सब जगह इष्ट अनिष्ट विषयोंमें सम्बन्ध (राग द्वेप) का त्याग होना चाहिये, तथा मुनिपदवीके भंग होजानेका कारण परद्रव्यके साथ संबंध होना ही है, क्योंकि परद्रव्यके संबंधसे अवश्य ही उपयोग-भूमिमें रागभाव होता है, जिस जगह रागभाव है; वहाँपर वीतरागभाव यतिपदका भंग होता ही है। इस कारण परद्रव्यके साथ संबंध होना उपयोगकी अशुद्धताके कारण हैं। इसलिये परद्रव्य संबंध मुनिको सर्वथा निषेध किया है । जव परद्रव्यका संबंध मुनिके दूर हो जायगा, तो सहज ही अंतरंग संयमका घात न होगा, तभी निर्दोष मुनिपदकी सिद्धि होगी। इस तरह परद्रव्यके विरक्त वीतरागभावोंमें लीन मुनि कहीं भी रहे, चाहे गुरुके पास रहे, अथवा अन्य जगह रहो, सभी जगह वह निर्दोष है, और जो परभावों में रागी द्वेषी होता है, वह सब जगह संयमका घाती होता है, तथा महा सदोपी है। इसलिये परद्रव्यके सम्बन्ध मुनिको सर्वथा निषेध किये गये हैं ॥ १३ ॥ आगे मुनिपदकी पूर्णताका कारण अपने आत्माका सम्बन्ध है, इसलिये आत्मामें लीन होना योग्य है, यही कहते हैं-[यः] जो [श्रमणः] मुनि [दर्शनमुखे] सम्यक् दर्शन आदि अनंतगुण सहित [ज्ञाने]
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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