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________________ - - -- - २८६ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० ३, गा० १३युक्तो भवति तदा जिनोदितव्यवहारविधिविदग्धश्रमणाश्रययालोचनपूर्वकतदुपदिष्टानुष्ठानेन प्रतिसंधानम् ॥ ११ । १२ ॥ अथ श्रामण्यस्य छेदायतनत्वात् परद्रव्यप्रतिबन्धा प्रतिषेध्या इत्युपदिशति अधिवासे व बिवासे छेदविहूणो भवीय सामण्णे । .. समणो विहरदु णिचं परिहरमाणो णिबंधाणि ॥ १३ ॥ अधिवासे वा विवासे छेदविहीनो भूत्वा श्रामण्ये । . श्रमणो विहरतु नित्यं परिहरमाणो निबन्धान् ॥ १३ ॥ सर्व एव हि परद्रव्यप्रतिबन्धा उपयोगोपरञ्जकत्वेन निरुपरागोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य श्चित्तं तत्कर्तव्यमिति सूत्रतात्पर्यम् ॥ ११ । १२ ॥ एवं गुरुव्यवस्थाकथनरूपेण प्रथमगाथा, तथैव प्रायश्चित्तकथनार्थ गाथाद्वयमिति समुदायेन तृतीयस्थले गांथात्रयं गतम् । अथ निर्विकारश्रामण्यच्छेदजनकान्परद्रव्यानुबन्धानिषेधयति-विहरदु विहरतु विहारं करोतु । स कः । समणो शत्रुमित्रादिसमचित्तश्रमणः णिचं नित्यं सर्वकालम् । किं कुर्वन्सन् । परिहरमाणो परिहरन्सन् । कान् । णिबंधाणि चेतनाचेतनमिश्रपरद्रव्येष्वनुबन्धान् । क विहरतु । अधिवासे अधिकृतगुरुकुलवासे निश्चयेन खकीयशुद्धात्मवासे वा विवासे गुरुविरहितवासे वा । किं कृत्वा । सामण्णे निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणनिश्चयचारित्रे छेदविहूणो भवीय छेदविहीनो ओंमें यत्नसे प्रवर्तता है, तथा यत्न करनेपर भी जिसका किसी तरह शरीरमात्र क्रियासे उपयोग विना ही संयमका भंग हुआ हो, तो उस मुनिके सर्वथा अंतरंगमें संयमका भंग नहीं हुआ, किंतु वहाँपर किसी जातिका बहिरङ्गमें उस मुनिके उस संयमके स्थापन करनेका उपाय आलोचनादिक क्रिया है । आलोचनादिक क्रियासे उस दोषकी निवृत्ति होती है, और जो. अंतरङ्गमें उपयोगसे संयमका घात हुआ हो, तो यह साक्षात् संयमका घात है । वह मुनि इस दोषको दूर करनेके लिये जो आचार्य महामुनि भगवंत कथित व्यवहार-मार्गमें प्रवीण (चतुर) हो, उसके पास जाकर अपना दोष प्रकाशे, (कहे) आलोचनादि क्रिया करे, और वह आचार्य जो संयमके शुद्ध करनेका उपाय ( आचरण) बतलावे, उसको अंगीकार करे । इस प्रकार फिर संयमको स्थापन करना चाहिये । ऐसे यह अंतरङ्ग बहिरङ्गरूप दो प्रकारकी संयमका छेदोपस्थापन जानना योग्य है। ॥११।१२।। आगे मुनिपदके भंगका कारण परद्रव्योंके साथ संबंध है, इसलिये परके. संबंधोंका निषेध करते हैं-[श्रामण्ये] समताभावरूप यति अवस्थामें [छेदविहीनो भूत्वा ] अंतरंग बहिरंग भेदसे दो तरहका जो मुनिपदका भंग है, उससे रहित होकर [नित्यं ] सर्वदा ( हमेशा) [ निबन्धान् ] परद्रव्यमें इष्ट अनिष्ट सम्बन्धोके [परिहरमाणः ] त्यागता हुआ [अनिवासे] आत्मामें आत्माको अंगीकार कर जहाँ गुरूका वास हो, वहाँपर अर्थात् उन पूज्य गुरुओंकी संगतिमें रहे, [वा] अथवा [विवासे]
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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