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________________ - २८८ः - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० ३, गा० १५परिपूर्णतायतनं, तत्सद्भावादेव परिपूर्ण श्रामण्यम् । अतो नित्यमेव ज्ञाने दर्शनादौ च प्रतिबद्धेने मूलगुणप्रयततया चरितव्यं ज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मद्रव्यप्रतिबद्धशुद्धास्तित्वमात्रेण वर्तितव्यमिति तात्पर्यम् ॥ १४ ॥ अथ श्रामण्यस्य छेदायतनत्वात् यतिजनासन्नः सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबन्धोऽपि प्रतिषेध्य इत्युपदिशति भत्ते वा खमणे वा आवसधे वा पुणो विहारे वा। उवधिम्हि वा णिबद्धं णेच्छदि समणम्हि विकधम्हि ॥ १५॥ भक्ते वा क्षपणे वा आवसथे वा पुनर्विहारे वा। . उपधौ वा निबद्धं नेच्छति श्रमणे विकथायाम् ॥ १५ ॥ परमागमज्ञाने तत्फलभूतस्वसंवेदनज्ञाने वा दंसणमुहम्मि दर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानं तत्फलभूतनिजशुद्धात्मोपादेयरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वं वा तत्प्रमुखेष्वनन्तसुखादिगुणेषु पयदो मूलगुणेसु य प्रणतः प्रयत्नपरश्च । केषु । मूलगुणेषु निश्चयमूलगुणाधारपरमात्मद्रव्ये वा जो सो पडिपुण्णसामण्णो य एवं गुणविशिष्टश्रमणः स परिपूर्णश्रामण्यो भवतीति । अयमत्रार्थ:-निजशुद्धात्मभावनारतानामेव परिपूर्णश्रामण्यं भवतीति ॥ १४ ॥ अथ श्रामण्यछेदकारणत्वात्प्रासुकाहारादिप्वपि ममत्वं निषेधयति-णेच्छदि नेच्छति । कम् । णिबद्धं निबद्धमाबद्धम् । क । भत्ते वा शुद्धात्मभावनासहकारिभूतदेहस्थितिहेतुत्वेन गृह्यमाणे भक्ते वा प्रासुकाहारे खमणे वा इन्द्रियज्ञानस्वरूप आत्मामें [ नित्यं ] हमेशा [चरति ] प्रवृत्त (लीन ) होता है, [सः] वह [ मूलगुणेषु] २८ मूलगुणोंमें [प्रयतः] सावधान होकर उद्यमी हुआ [परिपूर्णश्रामण्यः] अंतरङ्ग बाह्य संयम भंगसे रहित अखंडित यतिपदवी अर्थात् परिपूर्ण मुनिपदका धारक होता है । भावार्थ-अपने आत्मामें जो रत (लीन ) होना, वह परिपूर्ण मुनिपदीका कारण है, क्योंकि जब यह अपनेमें रत होता है, तभी इसके परद्रव्यमें ममत्व भाव छूटता है, और जिस अवस्थामें यह परद्रव्यसे विरक्त हुआ, कि वहीं इसका उपयोग भी निर्मल हो जाता है, जिस जगह उपयोगकी निर्मलता है, वहाँ अवश्य ही मुनिपदकी सिद्धि होती है । इसलिये आत्मामें रत होना परिपूर्ण मुनिपदका कारण है। ऐसा समझकर अपने ज्ञान दर्शनादि अनंत गुणों में अपना सर्वस्व जान रत होना योग्य है, और अट्ठावीस मूलगुणोंमें यत्नसे प्रवृत्त होना योग्य है । इससे यह बात सिद्ध हुई, कि मुनिपदकी पूर्णता एक आत्मामें लीन होनेसे ही होती है। इस कारण अन्य परद्रव्यका सम्बन्ध त्यागना ही योग्य है ॥१४॥ आगे मुनिके निकटमें यद्यपि सूक्ष्म परद्रव्य भी हैं, तथापि उनमें मुनिको रागभावपूर्वक सम्वन्ध निषिद्ध है, यह कहते हैंजो महामुनि है, वहं [ भक्ते ] आहारमें [वा] अथवा [क्षपणे ] इन्द्रियोंको उत्तेजित न होने देनेका. कारण तथा निर्विकल्प समाधिके कारणभूत अनशनमें [वा] अथवा ..
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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