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________________ २७४ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० ३, गा० २नाचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावत् त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभते । अहो मोक्षमार्गप्रवृत्तिकारणपञ्चमहाव्रतोपेतकायवाड्मनोगुप्तीर्याभाषेषणादाननिक्षेपणप्रतिष्ठापनसमितिलक्षणचारित्राचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभते । अहो अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशप्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्खाध्यायध्यानव्युत्सर्गलक्षणतपआचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभते । अहो सममन्यते गोत्रसम्मतं कृत्वा पश्चात्तपश्चरणं करोमि तस्य प्रचुरेण तपश्चरणमेव नास्ति कथमपि तपश्चरणे गृहीतेऽपि यदि गोत्रादिममत्वं करोति तदा तपोधन एव न भवति । तथाचोक्तम्कुटुम्ब यदि किसी तरह राजी न होवे, तब कुटुम्बके भरोसे रहनेसे विरक्त कभी हो ही नहीं सकता। इस कारण कुटुम्बके पूछनेका नियम नहीं है। जो कभी किसी जीवको मुनि-दशा धारणके समय कुछ कहना ही होवे, तो पूर्वोक्त प्रकार उपदेशरूप वचन 'निकलते हैं। उस तरहके वैराग्यरूप वचनोंको सुनकर जो निकट-संसारी जीव कुटुम्बमें हों, वे भी विरक्त होसकते हैं । तथा इसके बाद सम्यग्दृष्टी जीव अपने स्वरूपको देखता है, जानता है, अनुभव करता है, अन्य समस्त ही व्यवहार भावोंसे अपनेको भिन्न मानता है, और परभावरूप सभी शुभाशुभ क्रियाओंको हेयरूप जानता है, अंगीकार नहीं करता। लेकिन वही सम्यग्दृष्टी जीव पूर्व वधे हुए कर्मों के उदयसे अनेक प्रकारके विभाव (विकार) भावॉस्वरूप परिणमता है, तो भी उन भावोंसे विरक्त है, वह यह जानता है, कि जबतक इस अशुद्ध परिणतिकी स्थिति है, तबतक यह अवश्य होती है, इस कारण आकुलतारूप भावोंको भी नहीं प्राप्त होता । यह सम्यग्दृष्टी जीव तो सकल द्रव्य भावरूप विभावभावोंका तभी त्याग करचुका, जव इसके स्वपर विवेकरूप भेदविज्ञान प्रगट हुआ था, और तभी टंकोत्कीर्ण निजभाव भी अंगीकार किये । इसलिये सम्यग्दृष्टीको न तो कुछ त्यागनेको रहा है और न कुछ स्वीकार करनेको ही है। परंतु वही सम्यग्दृष्टि जीव चारित्रमोहके उदयसे शुभ भावोंरूप परिणमन करता है, उस परिणमनकी अपेक्षा यागता है, और अंगीकार करता है । यही कथन दिखलाते है-प्रथम ही गुणस्थानोंकी परिपाटीके क्रमसे अशुभ परिणतिकी हानि होती है, उसके बाद धीरे धीरे शुभ परिणति भी छूटती जाती है । इस कारण पहले तो वह गृहवास कुटुम्बका त्यागी होता है, पीछे शुभ रागके उदयसे व्यवहार रत्नत्रयरूप पंचाचारोंको अंगीकार करता है। यद्यपि ज्ञानभावसे समस्त ही शुभाशुभ क्रियाओंका त्यागी है, परंतु शुभ रागके उदयसे ही पंचाचारोंको ग्रहण करता है। उसकी रीति बतलाते हैं-हे काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिद्रव, अर्थ व्यंजन, तदुभयरूप आठ प्रकार ज्ञानाचार; मैं तुझको जानता हूँ, कि तू शुद्धात्म स्वरूपका निश्चय करके
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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