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________________ २.] २७३ . - प्रवचनसारःआत्मानमेवात्मनोऽनादिजनकमुपसर्पति । अहो इदंजनशरीररमण्या आत्मन् , अस्य जनस्यात्मानं न त्वं रमयसीति निश्चयेन त्वं जानीहि तत इममात्मानं विमुञ्च, अयमात्मा अद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः स्वानुभूतिमेवात्मनोऽनादिरमणीमुपसर्पति । अहो इदंजनशरीरपुत्रस्यात्मन् , अस्य जनस्यात्मनो न त्वं जन्यो भवसीति निश्चयेन त्वं जानीहि तत इममात्मानं विमुञ्च, अयमात्मा अघोद्भिन्नज्ञानज्योतिः आत्मानमेवात्मनोऽनादिजन्यमुपसर्पति । एवं गुरुकलत्रपुत्रेभ्य आत्मानं विमोचयति । तथा अहो कालविनयोपधानबहुमानानिह्नवार्थव्यञ्जनतदुभयसंपन्नलक्षणज्ञानाचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावत्त्वत्पदासात् शुद्धमात्मानमुपलभते । अहो निःशङ्कितत्वनिःकाश्रितत्वनिर्विचिकित्सत्वनिर्मूढदृष्टित्वोपबृंहणस्थितिकरणवात्सल्यप्रभावनालक्षणदर्शअत्र यद्गोत्रादिभिः सह क्षमितव्यव्याख्यानं कृतं तदत्रातिप्रसंगनिषेधार्थम् । तत्र नियमो नास्ति । कथमिति चेत् । पूर्वकाले प्रचुरेण भरतसगररामपाण्डवादयो राजान एव जिनदीक्षां गृह्णन्ति, तत्परिवारमध्ये यदा कोऽपि मिथ्यादृष्टिर्भवति तदा धर्मस्योपसगं करोतीति । यदि पुनः कोऽपि विरक्त होता है । भावार्थ-जो जीव मुनि होना चाहता है, वह पहले ही अपने कुटुम्बके लोगोंसे पूछकर अपनेको छुड़ावे । छुड़ानेकी रीति इस तरहसे है-भो इस जनके शरीरके तुम भाई बंधुओ; इस जनका (मेरा) आत्मा तुम्हारा नहीं है, ऐसा तुम निश्चयकर समझो। इसलिये तुमसे पूँछता हूँ, कि यह मेरी आत्मामें ज्ञान-ज्योति प्रगट हुई है, इस कारण अपना आत्मस्वरूप ही अनादि भाई वंधुको प्राप्त होता है । अहो इस जनके. शरीरके तुम माता पिताओ; इस जनका आत्मा तुमने उत्पन्न नहीं किया, यह तुम निश्चयसे समझो, इसलिये तुम इस मेरे आत्माके विपयमें ममता भाव छोड़ो। यह आत्मा ज्ञान-ज्योतिकर प्रगट हुआ है, सो अपने आत्मस्वरूप ही माता पिताको प्राप्त होता है । हे इस जनके शरीरका मन हरनेवाली स्त्री; तू इस जनके आत्माको नहीं रमण कराती, (प्रसन्न करती) यह निश्चयसे जान । इस कारण इस आत्मासे ममत्व भाव छोड़ दे। यह आत्मा ज्ञान-ज्योतिकर प्रगट हुआ है, इसलिये अपनी अनुभूतिरूप स्त्रीके साथ रमण-स्वभावी है। हे जनके शरीरका पुत्र; तू इस जनके आत्मासे नहीं उत्पन्न हुआ, यह निश्चयसे समझ । इस कारण इसमें ममता भाव छोड़, यह आत्मा ज्ञानज्योतिकर प्रगट हुआ है, इसलिये अपने आत्माका यह आत्मा ही अनादि पुत्र है, और वह उसको प्राप्त होता है । इस प्रकार माता, पिता, स्त्री, पुत्रादि, कुटुम्बसे अपना पीछा छुड़ावे । अथवा जो कोई जीव मुनि होना चाहता है, वह तो सब तरह कुटुम्बसे विरक्त ही है, उसको कुटुम्बसे पूछनेका कुछ कार्य ही नहीं रहा, परंतु यदि कुटुम्बसे विरक्त होवे, और जब कुछ कहना पड़े, तव वैराग्यके कारण कुटुम्बके समझानेको इस तरहके वचन निकलते हैं । यहाँपर ऐसा नहीं समझना, कि जो विरक्त होवे, तो कुटुम्बको राजी करके ही होवे । प्र० ३५
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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