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________________ ३.] -प्रवचनसारः २७५ स्तेतराचारप्रवर्तकखशक्त्यनिगृहनलक्षणवीर्याचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभते । एवं ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारमासीदति च ॥२॥ अथातः कीदृशो भवतीत्युपदिशति समणं गणिं गुणटुं कुलरूववयोविसिट्टमिट्ठदरं । समणेहि तं पि पणदो पडिच्छ मं चेदि अणुगहिदो ॥३॥ श्रमणं गणिनं गुणाढ्यं कुलरूपवयोविशिष्टमिष्टतरम् ।। . श्रमणैस्तमपि प्रणतः प्रतीच्छ मां चेत्यनुगृहीतः ॥३॥ ततो हि श्रामण्यार्थी प्रणतोऽनुगृहीतश्च भवति । तथाहि-आचरिताचारितसमस्तवि-. "जो सकलणयररजं पुवं चइऊण कुणइ य ममत्तिं । सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो" ॥ २ ॥ अथ जिनदीक्षार्थी भव्यो जैनाचार्यमाश्रयति-समणं निन्दाप्रशंसादिसमचित्तत्वेन पूर्वसूत्रोदितनिश्चयव्यवहारपञ्चाचारस्य चरणाभरणप्रवीणत्वात् श्रमणम् । गुणहूं चतुरशीतिलक्षगुणाष्टादशसहस्रशीलसहकारिकारणोत्तमनिजशुद्धात्मानुखभाव नहीं है, तो भी मैं तबतक अंगीकार करता हूँ, जबतक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको प्राप्त हो जाऊँ । अहो निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्व, निर्मूढदृष्टित्व, उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावनास्वरूप, दर्शनाचार; तू शुद्धात्माका स्वरूप नहीं है, ऐसा मैं निश्चयसे जानता हूँ, तो भी तुझको तबतक स्वीकार करता हूँ, जवतक तेरे प्रसादसे शुद्ध आत्माको प्राप्त हो जाऊँ। अहो मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिके कारण पंच महाव्रत, तीन गुप्ति, पाँच समितिरूप तेरह प्रकार चारित्राचार; मैं जानता हूँ, कि निश्चयसे तू शुद्धात्माका स्वरूप नहीं है, तथापि तबतक अंगीकार करता हूँ, जबतक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको प्राप्त होऊँ । अहो अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्गस्वरूप बारह प्रकार तपआचार; मैं निश्चयसे जानता हूँ, कि तू शुद्धात्माका स्वभाव नहीं है, परंतु तो भी तुझको तबतक स्वीकार करता हूँ, जबतक तेरे प्रसादसे शुद्धस्वरूपको प्राप्त होजाऊँ। अहो समस्त आचारकी प्रवृत्तिके वढ़ानेमें स्वशक्तिके प्रगट करनेवाले वीर्याचार; मैं निश्चयसे जानता हूँ, कि तू शुद्धात्माका स्वरूप नहीं है, परंतु तो भी तुझको तबतक अंगीकार करता हूँ जबतक कि तेरे प्रसाद (कृपा) से शुद्ध स्वरूपको प्राप्त हो जाऊँ । इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्यरूप पाँच प्रकार आचारको अंगीकार करता है ॥ २॥ आगे इसके वाद कैसा होता है, यह कहते हैं-[तं] उस [गणिणं ] परम आचार्यके पास जाकर [प्रणतः ] नमस्कार करता हुआ [चापि] और निश्चयकर [ मां] हे प्रभो; मुझको [प्रतीच्छ] शुद्धात्म तत्त्वकी सिद्धिकरके अंगीकार करो, [इति इस प्रकार विनती करता हुआ [ अनुगृहीतः ] आचार्य दीक्षाका उपदेश देते हैं, और अंगीकार करते
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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