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________________ २५८. -रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० २, गा० १०१परिच्छेद्यपर्यायात्मकपरद्रव्यविभागेन तत्प्रत्ययपरिच्छेदात्मकस्वधर्माविभागेन चास्त्येकत्वम् । तथा नित्यप्रवृत्तपरिच्छेद्यद्रव्यालम्बनाभावेनानालम्बस्य परिच्छेद्यपरद्रव्यविभागेन तत्प्रत्ययपरिच्छेदात्मकस्वधर्माविभागेन चास्त्येकत्वम् । एवं शुद्ध आत्मा चिन्मात्रशुद्धनयस्य तावन्माननिरूपणात्मकत्वात् अयमेक एव च ध्रुवत्वादुपलब्धव्यः, किमन्यैरध्वनीनाङ्गसंगच्छमानानेकमार्गपादपच्छायास्थानीयैरध्रुवैः ॥ १०० ॥ अथाध्रुवत्वादात्मनोऽन्यन्नोपलभनीयमित्युपदिशति देहा. वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तुमित्तजणा। जीवस्स ण,संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा ॥ १०१॥ देहा वा द्रविणानि वा सुखदुःखे वाथ शत्रुमित्रजनाः । जीवस्य न सन्ति ध्रुवा ध्रुव उपयोगात्मक आत्मा ॥ १०१॥ आत्मनो हि परद्रव्याविभागेन परद्रव्योपरज्यमानस्वधर्मविभागेन चाशुद्धत्वनिबन्धनं न पराधीनपरद्रव्यालम्बनरहितत्वेन निरालम्बनमित्यर्थः ॥ १०० ॥ अथात्मनः पृथग्भूतं देहादिकमध्रुवत्वान्न भावनीयमित्याख्याति–ण संति धुवा ध्रुवा अविनश्वरा नित्या न सन्ति । कस्य । जीवस्स जीवस्य । के ते । देहा वा दविणा वा देहा वा द्रव्याणि वा सर्वप्रकारशुचीभूतादेहरहितात्परमात्मनो विलक्षणा औदारिकादिपञ्चदेहास्तथैव च पञ्चेन्द्रियभोगो, पभोगसाधकानि परद्रव्याणि च । न केवलं देहादयो ध्रुवा न भवन्ति सुहदुक्खा वा निर्विकारपरमानन्दैकलक्षणखात्मोत्थसुखामृतविलक्षणानि सांसारिकसुखदुःखानि वा । अध जुदापना नहीं है, इसलिये भी यह एकरूप है । इसी प्रकार यह आत्मा समय समय. विनाशीक ज्ञेयपदार्थोंके ग्रहण करनेवाला और त्यागनेवाला नहीं है, अचल है, इस कारण इसके ज्ञेयपर्यायरूप परद्रव्यसे जुदापना है, 'उसके जाननेरूप भावसे जुदापना नहीं है, इसलिये भी एक है, और अन्य भाव सहित ज्ञेयपदार्थोके अवलंबनका अभाव है, यह आत्मा तो स्वाधीन है, इस कारण इसके ज्ञेयपदार्थोसे भिन्नपना है, परंतु इनके जाननेरूप भावसे जुदापना नहीं है, इससे भी एकरूप है । इस प्रकार अनेक परद्रव्योंके भेदसे अपनी एकताको नहीं छोड़ता है, इस कारण शुद्धनयसे शुद्ध चिन्मान वस्तु है, यही एक टंकोत्कीर्ण ध्रुव है, और अंगीकार करने योग्य है। जैसे मार्गमें गमन करते हुए पथिक-जनोंको अनेक वृक्षोंकी छाया विनाशीक और अध्रुव होती है, उसी प्रकार इस आत्माके परद्रव्यके संबंधसे अनेक अध्रुवभाव उत्पन्न होते हैं, उनसे कुछ साध्य [ इष्ट ] की सिद्धि नहीं होती । इसलिये एक नित्यस्वरूप यही अवलंबन योग्य है, वाकी सब त्याज्य हैं ॥१००॥ आगे कहते हैं, कि आत्मा ध्रुव है, इस कारण इसके सिवाय अन्य वस्तुको अंगीकार करना योग्य नहीं है-[देहाः] औदारिकादि पाँच शरीर [वा] अथवा [द्रविणानि ] धन धान्यादिक [वा] अथवा [सुखदुःखे] इष्ट अनिष्ट पंचे
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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