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________________ ८८.] - प्रवचनसार: २४३ संचितेन पुराणेन च वैराग्यपरिणतो न बध्यते । ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धस्य साधकतमत्वाद्रागपरिणाम एव निश्चयेन बन्धः ॥ ८७ ॥ अथ परिणामस्य द्रव्यबन्धसाधकतमरागविशिष्टत्वं सविशेष प्रकटयति परिणामादो बंधो परिणामो रागदोसमोहजुदो। असुहो मोहपदोसो सुहो व असुहो हवदि रागो ॥ ८८ ॥ परिणामाद्वन्धः परिणामो रागद्वेषमोहयुतः । . अशुभौ मोहप्रद्वेषौ शुभो वाशुभो भवति रागः ॥ ८८॥ द्रव्यवन्धोऽस्ति तावद्विशिष्टपरिणामात् । विशिष्टत्वं तु परिणामस्य रागद्वेषमोहमयत्वेन । निश्चयनयाभिप्रायेणेति । एवं रागपरिणाम एव बन्धकारणं ज्ञात्वा समस्तरागादिविकल्पजालत्यागेन विशुद्धज्ञानदर्शनखभावनिजात्मतत्त्वे निरन्तरं भावना कर्तव्येति ॥ ८७ ॥ अथ जीवपरिणामस्य द्रव्यबन्धसाधकं रागाद्युपाधिजनितभेदं दर्शयति-परिणामादो बंधो परिणामात्सकाशाद्वन्धो भवति । स च परिणामः किंविशिष्टः । परिणामो रागदोसमोहजुदो वीतरागपरमात्मनो विलक्षणत्वेन परिणामो रागद्वेषमोहोपाधित्रयेण संयुक्तः असुहो मोहपदोसो अशुभौ मोहप्रद्वेषौ परोपाधिजनितपरिणामत्रयमध्ये मोहप्रद्वेषद्वयमशुभम् । सुहो व असुहो हवदि रागो शुभोऽशुभो वा भवति रागः । पञ्चपरमेष्ट्यादिभक्तिरूपः शुभराग उच्यते, विषयकषायरूपश्चाशुभ इति । अयं परिणामः सर्वोऽपि सोपाधित्वात् बन्धहेतुरिति ज्ञात्वा परिणमता है, वही नवीन द्रव्य कर्मकर बँधता है, और जो जीव वैराग्यस्वरूप परिणमन करता है, वह कर्मोंसे नहीं बँधता। रागपरिणत जीव नूतनकर्मसे छूटता ही नहीं, और वैराग्यपरिणतिवाला नवीनकर्मोंसे छूट जाता है, तथा पुराने कर्मोंसे छूटता है। रागपरिणतिवाला जीव नवीन कर्मोसे भी बंधता है, और पुराने कर्मोसे भी पहलेका बँधा हुआ है। वैराग्यसे परिणत जीव बंध अवस्थाके होनेपर भी अबंध हा गया है। इससे यह बात सिद्ध हुई, कि द्रव्यवंधका कारण रागादि अशुद्धोपयोग है, वही निश्चयबंध है, द्रव्य उपचारमान है ॥ ८७॥ आगे द्रव्यबंधका कारण जो परिणाम है, उसमें रागकी विशेपता दिखलाते हैं-[परिणामात्] अशुद्धोपयोगरूप परिणामसे [बन्धः] पुद्गलकर्मवर्गणारूप द्रव्यबंध होता है, [परिणामः] और वह परिणाम [रागद्वेषमोहयुतः] राग, द्वेप, मोह, भावोंकर सहित है। वह परिणाम शुभ और अशुभके भेदसे दो तरहका है, उनमेंसे [मोहद्वेषौ] मोहभाव और द्वेषभाव ये दोनों [अशुभौ] अशुभ हैं, और [ रागः] रागभाव [शुभः] पंचपरमेष्ठीकी भक्ति आदि स्वरूप शुभ है, [वा] और [अशुभः] विपयरतिरूप अशुभ भी है। भावार्थ-जो परिणाम राग, द्वेष, मोहकी विशेपता लिये हुए हो, वही परिणाम बंधका कारण है। मोहसामान्य राग, द्वेष,मोहके भेदसे तीन प्रकारका है, उनमें से द्वेप, मोह तो अशुभ भाव ही हैं, और राग शुभ अशुभके भेदसे दो प्रकार का है। धर्मानुराग शुभ है, और
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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