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________________ २३८ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला -, [अ० २, गा० ८३वा पृथगवस्थितं मृद्बलीव बलीवर्द वा पश्यतो जानतश्च न बलीवर्दैन सहास्ति संवन्धः, विषयभावावस्थितवलीवर्दनिमित्तोपयोगाधिरूढवलीवर्दाकारदर्शनज्ञानसंवन्धो बलीवर्दसंवन्धव्यवहारसाधकस्त्वस्त्येव, तथा किलात्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलैः सहास्ति संवन्धः, एकावगाहमावावस्थितकर्मपुद्गलनिमित्तोपयोगाधिरूढरागद्वेषादिभावसंवन्धः कमपुद्गलवन्धव्यवहारसाधकस्त्वस्त्येव ॥ ८२॥ अथ भाववन्धस्वरूपं ज्ञापयति उवओगमओ जीवो मुज्झदि रजेदि वा पदुस्सेदि । पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं संबंधो ॥ ८३ ॥ उपयोगमयो जीवो मुह्यति रज्यति वा प्रद्वेष्टि । प्राप्य विविधान् विषयान् यो हि पुनस्तैः संबन्धः ॥ ८३॥ प्यनादिकर्मवन्धवशाद्यवहारेण मूर्तः सन् द्रव्यबन्धनिमित्तभूतं रागादिविकल्परूपं भाववन्धोपयोगं करोति । तस्मिन्सति मूर्तद्रव्यकर्मणा सह यद्यपि तादात्म्यसंवन्धो नास्ति तथापि पूर्वोक्तदृष्टान्तेन संश्लेषिसंबधोऽस्तीति नास्ति दोषः ॥ ८२ ॥ एवं शुद्धबुद्धैकखभावजीवकथनमुख्यत्वेन प्रथमगाथा । मूर्तिरहितजीवस्य मूर्तकर्मणा सह कथं बन्धो भवतीति पूर्वपक्षरूपेण द्वितीया तत्परिहाररूपेण तृतीया चेति गाथात्रयेण प्रथमस्थलं गतम् । अब रागद्वेपमोहलक्षणं भावबन्धखरूपमाख्याति-उवओगमओ जीवो उपयोगमयो जीवः, अयं जीवो निश्चयनयेन विशुद्धज्ञानदर्शनोपयोगमयस्तावत्तथाभूतोऽप्यनादिबन्धवशात्सोपाधिस्फटिकवत् परोपाधिभावेन परिणतः सन् । किं करोति । मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि मुह्यति रज्यति वा प्रद्वेष्टि द्वेषं करोति । किं कृत्वा । पूर्व पप्पा प्राप्य । कान् । विविधे विसये विचारना चाहिये, कि माटीका वलय और सच्चा वलय दोनों वाल गोपालसे जुदे हैं, उनके जानेसे-टूटने फूटनेसे बालक और ग्वालिया क्यों दुःखी होते हैं। इससे यह वात विचारमें आती है, कि वे वाल गोपाल उन वलयोंको अपना मानकर देखते हैं, जानते हैं । इस कारण अपने परिणामोंसे बँध रहे हैं, उनका ज्ञान वलयके निमित्तसे तदाकार परिणत हो रहा है। इसलिये परखरूप वलयोंसे संबंधका व्यवहार आजाता है। उसी प्रकार इस आत्माका पुद्गलसे कुछ संबंध नहीं है, परंतु अनादिकालसे लेकर एक क्षेत्रावगाहकर ठहरे हुए जो पुद्गल हैं, उनका निमित्त पाकर उत्पन्न हुआ जो राग, द्वेप, मोहरूप अशुद्धोपयोग वही भावबंध है, उसीसे आत्मा बँधा हुआ है, पुद्गलीक कर्मवंध व्यवहारमान है। इससे यह बात सिद्ध हुई, कि जो यह आत्मा परद्रव्यको रागी, द्वेपी, मोही, होकर देखता है, जानता है, वही अशुद्धोपयोगरूप परिणाम बंधका कारण है, और अपने ही अशुद्धपरिणामसे बंध है ॥ ८२ ।। आगे भावबंधका स्वरूप दिखलाते हैं-[यः] जो [उपयोगमयः] मान दर्शनमयी [जीवः ] आत्मा [विविधान् ] अनेक तरहके [विषयान् ]
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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