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________________ ८२.] -प्रवचनसारः २३७ रूपादिकै रहितः पश्यति जानाति रूपादीनि । द्रव्यांणि गुणांश्च यथा तथा बन्धस्तेन जानीहि ॥ ८२ ॥ · येन प्रकारेण रूपादिरहितो रूपीणि द्रव्याणि तद्गुणांश्च पश्यति जानाति च, तेनैव प्रकारेण रूपादिरहितो रूपिभिः कर्मपुद्गलैः किल बध्यते । अन्यथा कथममूर्ती मूर्त पश्यति जानाति चेत्यत्रापि पर्यनुयोगस्यानिवार्यत्वात् । न चैतदत्यन्तदुर्घटत्वाद्दार्टान्तिकीकृतं, किंतु दृष्टान्तद्वारेणाबालगोपालप्रकटितम् । तथाहि-यथा बालकस्य गोपालकस्य भवतीति प्रत्युत्तरं ददाति-रूवादिएहिं रहिदो अमूर्तपरमचिज्ज्योतिःपरिणत्वेन तावदयमात्मा रूपादिरहितः । तथाविधः सन् किं करोति । पेच्छदि जाणादि मुक्तावस्थायां युगपत्परिच्छित्तिरूपसामान्यविशेषग्राहककेवलदर्शनज्ञानोपयोगेन यद्यपि तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथापि ग्राह्यग्राहकलक्षणसंबन्धेन पश्यति जानाति । कानि कर्मतापन्नानि । रूवमादीणि दवाणि रूपरसगन्धस्पर्शसहितानि मूर्तद्रव्याणि । न केवलं द्रव्याणि गुणे य जधा तद्गुणांश्च यथा । अथवा यः कश्चित्संसारी जीवो विशेषभेदज्ञानरहितः सन् काष्ठपाषाणायचेतनजिनप्रतिमां दृष्ट्वा मदीयाराध्योऽयमिति मन्यते । यद्यपि तत्र सत्तावलोकदर्शनेन सह प्रतिमायास्तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथापि परिच्छेद्यपरिच्छेदकलक्षणसंबन्धोऽस्ति । यथा वा समवसरणे प्रत्यक्षजिनेश्वरं दृष्ट्वा विशेषभेदज्ञानी मन्यते मदीयाराध्योऽयमिति । तत्रापि यद्यप्यवलोकनज्ञानस्य जिनेश्वरेण सह तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथाप्याराध्याराधकसंबन्धोऽस्ति । तह बंधो तेण जाणीहि तथा बन्धं तेनैव दृष्टान्तेन जानीहि । अयमत्रार्थः-यद्यप्ययमात्मा निश्चयेनामूर्तस्तथादिकैः रहितः ] रूपादिसे रहित यह आत्मा [यथा] जैसे [रूपादीनि द्रव्याणि ] रूपादिगुणोंवाले घट पटादिस्वरूप अनेक पुद्गलद्रव्योंको [च ] और [गुणान् ] उन द्रव्योंके रूपादिगुणोंको [जानाति] जानता है, [पश्यति] देखता है, [तथा] उसी प्रकार [तेन] पुद्गलद्रव्यके साथ [बन्धं ] आत्माका बंध [जानीहि ] जानो। भावार्थ-आत्मा अमूर्तीक है, परंतु मूर्तीकद्रव्यका देखने जाननेवाला है । देखना जानना इसका स्वभाव है, उस देखने जाननेसे ही मूर्तीकद्रव्यसे बंध होता है, जो देखता जानता न होता, तो बंध होता । जव देखता जानता है, तभी बंध है। यही बात दृष्टान्तसे दिखलाते हैं जैसे एक बालक मिट्टीके वलय (कंकण) को अपना समझकर देखता है, जानता है, मानता है, परंतु वह वलय उस बालकसे जुदा है, कुछ संबंध नहीं है, तो भी जो उस कंकणको कोई तोड़ डाले, फोड़ डाले, अथवा लेजावे, तो वह वालक अति दुःखी होता है, और इसी तरह ग्वालिया सच्चे कंकणको अपना समझ कर देखता है, जानता है, मानता है, सच्चा वलय भी , उस ग्वालियेसे जुदा है-उस वलयसे कुछ संबंध नहीं है, तो भी उस सच्चे वलयको जो कोई तोड़ डाले, अथवा लेजावे, तो ग्वालिया भी अति दुःखी होता है । इस जगह
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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