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________________ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० १, गा०.२७एव भवन्ति । तत्र निश्चयनयेनानाकुलत्वलक्षणसौख्यसंवेदनत्वाधिष्ठानत्वावच्छिन्नात्म-. प्रमाणज्ञानस्वतत्त्वापरित्यागेन विश्वज्ञेयाकाराननुपगम्यावबुध्यमानोऽपि व्यवहारनयेन भगवान् सर्वगत इति व्यपदिश्यते । तथा नैमित्तिकभूतज्ञेयाकारानात्मस्थानवलोक्य सर्वेऽर्थास्तद्गता इत्युपचर्यन्ते, न च तेषां परमार्थतोऽन्योन्यगमनमस्ति, सर्वद्रव्याणां स्वरूपनिष्ठत्वात् । अयं क्रमो ज्ञानेऽपि निश्चयः ॥ २६ ॥ अथात्मज्ञानयोरेकत्वान्यत्वं चिन्तयति णाणं अप्प त्ति मदं वदि णाणं विणा ण अप्पाणं । तम्हा णाणं अप्पा अप्पा णाणं व अण्णं वा ॥ २७ ॥ ज्ञानमात्मेति मतं वर्तते ज्ञानं विना नात्मानम् । तस्मात् ज्ञानमात्मा आत्मा ज्ञानं वा अन्यद्वा ॥ २७ ॥ यतः शेषसमस्ताचेतनवस्तुसमवायसंबन्धनिरुत्सुकतयाऽनाद्यनन्तस्वभावसिद्धसमवायभण्यते भगवान् । येन च कारणेन नीलपीतादिबहिःपदार्था आदर्श विम्बवत् परिच्छित्याकारेण ज्ञाने प्रतिफलन्ति ततः कारणादुपचारेणार्थकार्यभूता अर्थाकारा अप्या भण्यन्ते । ते च ज्ञाने तिष्ठन्तीत्युच्यमाने दोषो नास्तीत्यभिप्रायः ।। २६ ॥ अथ ज्ञानमात्मा भवति, आत्मा तु ज्ञानं सुखादिकं वा भवतीति प्रतिपादयति-णाणं अप्प त्ति मदं ज्ञानमात्मा भवतीति आत्माप्रमाण है, क्योंकि निर्विकार निराकुल अनन्तसुखको आत्मामें आप वेदता है, अर्थात् अनुभव करता है । ज्ञान आत्माका स्वभावरूप लक्षण है, इस कारण वह अपने ज्ञानस्वरूप स्वभावको कभी नहीं छोड़ता। समस्त ज्ञेया-( पदार्थ ) कारों में प्राप्त नहीं होता, अपने में ही स्थिर रहता है । यह आत्मा सब पदार्थोंका जाननेवाला है, इसलिये व्यवहारनयसे सर्वगत ( सर्वव्यापक ) कहा है, निश्चयसे नहीं । इसी प्रकार निश्चयनयसे वे पदार्थ भी इस आत्मामें प्राप्त नहीं होते, क्योंकि कोई पदार्थ अपने स्वरूपको छोड़कर दूसरेके आकार नहीं होता, सब अपने अपने स्वरूपमें रहते हैं । निमित्तभूत ज्ञेयके आकारोंको आत्मामें ज्ञेयज्ञायक संबंधसे प्रतिबिंवित होनेसे व्यवहारसे कहते हैं, कि सब पदार्थ आत्मामें प्राप्त हो जाते हैं । जैसे आरसीमें घटादि पदार्थ प्रतिविम्ब निमित्तसे प्रवेश करते हैं, ऐसा व्यवहारमें कहा जाता है, निश्चयसे वे अपने स्वरूपमें ही रहते हैं । इस कथनसे सारांश यह निकला, कि निश्चयसे पदार्थ आत्मामें नहीं आत्मा पदार्थों में नहीं । व्यवहारसे ज्ञानरूप आत्मा पदार्थों में है। पदार्थ आत्मामें हैं, क्योंकि इन दोनोंका ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध दुर्निवार है ॥२६॥ आगे ज्ञान और आत्मा एक है, तथा आत्मा ज्ञान भी है, और सुखादिस्वरूप भी है, ऐसा कहते हैं-[ज्ञानं ] ज्ञानगुण [आत्मा] जीव ही है [इति
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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