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________________ २७.] -प्रवचनसारःसंबन्धमेकमात्मानमाभिमुख्येनावलम्ब्य प्रवृत्तत्वात् तं विना आत्मानं ज्ञानं न धास्यति । ततो ज्ञानमात्मैव स्यात् । आत्मा त्वनन्तधर्माधिष्ठानत्वात् ज्ञानधर्मद्वारेण ज्ञानमन्यधर्मद्वारेणान्यदपि स्यात् । किं चानेकान्तोऽत्र बलवान् । एकान्तेन ज्ञानमात्मेति ज्ञानस्याभावोऽचेतनत्वमात्मनो विशेषगुणाभावादभावो वा स्यात् । सर्वथात्मा ज्ञानमिति निराश्रयत्वात् ज्ञानस्याभाव आत्मनः शेषपर्यायाभावस्तदविनाभाविनस्तस्याप्यभावः स्यात् ॥ २७॥ मतं सम्मतम् । कस्मात् । वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं ज्ञानं कर्तृ विनात्मानं जीवमन्यत्र घटपटादौ न वर्तते । तम्हा णाणं अप्पा तस्मात् ज्ञायते कथंचिज्ज्ञानमात्मैव स्यात् । इति गाथापादत्रयेण ज्ञानस्य कथंचिदात्मत्वं स्थापितम् । अप्पा णाणं च अण्णं वा आत्मा तु ज्ञानधर्मद्वारेण ज्ञानं भवति, सुखवीर्यादिधर्मद्वारेणान्यद्वा नियमो नास्तीति । तद्यथा-यदि पुनरेकान्तेन ज्ञानमात्मेति भण्यते तदा ज्ञानगुणमात्र एवात्मा प्राप्तः सुखादिधर्माणामवकाशो नास्ति । तथा सुखवीर्यादिधर्मसमूहाभावादात्माऽभावः, आत्मन आधारभूतस्याभावादाधेयभूतस्य ज्ञानगुणस्याप्यभावः, इत्येकान्ते सति द्वयोरप्यभावः । तस्मात्कथंचिज्ज्ञानमात्मा न सर्वथेति । अयमत्राभिप्रायः-आत्मा व्यापको ज्ञानं व्याप्यं ततो ज्ञानमात्मा स्यात् , आत्मा तु ज्ञानमन्यद्वा भवतीति । तथा चोक्तम्-'व्यापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं तन्निष्ठमेव च ॥ २७ ॥ मतं ] ऐसा कहा है। [आत्मानं विना] आत्माके विना [ज्ञानं ] चेतनागुण [न वर्तते ] और किसी जगह नहीं रहता [ तस्मात् ] इस कारण [ ज्ञानं ] ज्ञानगुण [आत्मा] जीव है [च] और [आत्मा] जीवद्रव्य [ज्ञानं] चैतन्य गुणरूप है, [वा अन्यत् ] अथवा अन्य गुणरूप भी है । भावार्थ-ज्ञान और आत्मामें भेद नहीं है, दोनों एक हैं । क्योंकि अन्य सब अचेतन वस्तुओंके साथ संबंध न करके केवल आत्माके ही साथ ज्ञानका अनादिनिधन स्वाभाविक गाढ़ संबंध है, इस कारण आत्माको छोड़ ज्ञान दूसरी जगह नहीं रह सकता। परंतु आत्मा अनन्तधर्मवाला होनेसे ज्ञान गुणरूप भी है और अन्य सुखादि गुणरूप भी है, अर्थात् जैसे ज्ञानगुण रहता है, वैसे अन्य गुण भी रहते हैं। दूसरी बात यह है, कि भगवन्तका अनेकान्त सिद्धान्त वलवान् है । जो एकान्तसे ज्ञानको आत्मा कहेंगे, तो ज्ञानगुण आत्मद्रव्य हो जावेगा, और जब गुण ही द्रव्य हो जावेगा, तो गुणके अभावसे आत्मद्रव्यके अभावका प्रसङ्ग आवेगा, क्योंकि गुणवाला द्रव्यका लक्षण है, वह नहीं रहा, और जो सर्वथा आत्माको ज्ञान ही मानेंगे, तो आत्मद्रव्य एक ज्ञान गुणमात्र ही रह जावेगा, सुखवीर्यादि गुणोंका अभाव होगा । गुणके अभावसे आत्मद्रव्यका अभाव सिद्ध होगा, तब निराश्रय अर्थात् आधार न होनेसे ज्ञानका भी अभाव हो जायगा । इस कारण सिद्धान्त यह निकला, कि ज्ञानगुण तो आत्मा अवश्य है, क्योंकि ज्ञान अन्य जगह नहीं रहता। परंतु, आत्मा ज्ञानगुणकी अपेक्षा ज्ञान है, अन्यगुणोंकी अपेक्षा अन्य है ॥ २७ ॥
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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