SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .. १६.] . . .. -प्रवंचनसारः - - : दानत्वमुपाददानः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावस्थाधारभूतत्वादधिकरणत्वमात्मसात्कुर्वाणः, स्वयमेव षटारकीरूपेणोपजायमानः, उत्पत्तिव्यपेक्षया द्रव्यभावभेदभिनघातिकर्माण्यपास्य स्वयमेवाविर्भूतत्वाद्वा स्वयंभूरिति निर्दिश्यते । अतो- न निश्चयतः जातः । कथम् । सयमेव निश्चयेन खयमेवेति । तथाहि-अभिन्नकारकचिदानन्दैकचैतन्यखखभावेन स्वतन्त्रत्वात् कर्ता भवति । नित्यानन्दैकखभावेन स्वयं प्राप्यत्वात् कर्मकारकं भवति । शुद्धचैतन्यखभावेन साधकतमत्वात्करणकारकं भवति । निर्विकारपरमानन्दैकपरिणतिलक्षणेन शुद्धात्मभावरूपकर्मणा समाश्रियमाणत्वात्संप्रदानं भवति । तथैव पूर्वमत्यादिज्ञानविकल्पविनाशेऽ अव षट्कारक दिखाते हैं-कर्ता १ कर्म २ करण ३ संप्रदान ४ अपादान ५ अधिकरण ६ ये छह कारकोंके नाम हैं, और ये सब दो दो तरहके हैं, एक व्यवहार दूसरा निश्चय । उनमें जिस जगह परके निमित्तसे कार्यकी सिद्धि कीजाय, वहाँ व्यवहार पट्कारक होना है, और जिस जगह अपनेमें ही अपनेको उपादान कारण कर अपने कार्यकी सिद्धि कीजावे, वहाँ निश्चय षट्कारक हैं । व्यवहार छह कारक उपचार असद्भूतनयकर सिद्धि किये जाते हैं, इस कारण असत्य हैं, निश्चय छह कारक, अपने में ही जोड़े जाते हैं, इसलिये सत्य हैं। क्योंकि वास्तव में कोई द्रव्य किसी द्रव्यका कर्ता व हर्ता नहीं है, इसलिये व्यवहारकारक असत्य है, अपनेको आप ही करता है, इस कारण निश्चयकारक सत्य है । जो स्वाधीन होकर करे, वह कर्ता, जो कार्य किया जावे, वह कर्म, जिसकर किया जावे, वह करण, जो कर्मकर दिया जावे, वह संप्रदान, जो एक अवस्थाको छोड़ दूसरी अवस्थारूप होवे, वह अपादान, जिसके आधार कर्म होवे, वह अधिकरण कहा जाता है। अब दोनों कारकोंका दृष्टांत दिखलाते हैं। उनमें प्रथम व्यवहारकर इस तरह है-जैसे कुंभकार (कुम्हार ) कर्ता है, घडारूप कार्यको करता है, इससे घट कर्म है, दंड चक्र चीवर (डोरा ) आदिकर यह घट कर्म सिद्ध होता जरिये दंड आदिक. करण कारक हैं, जल वगैरःके भरनेके लिये घट दिया जानना, लिए संप्रदानकारक है, मिट्टीकी पिंडरूपादि अवस्थाको छोड़ घट अवस्थाको ...तो.६, [ नकारक है, भूमिके आधारसे घटकर्म किया जाता है, बनाया जाता [ जाति क्षेधिकरणकारक समझना, इस प्रकार ये व्यवहार कारक हैं । क्योंकि "0: जोनाजानी कर्म अन्य है, करण अन्य ही द्रव्य है, दूसरे ही को देना दूसरेसे -, है, '' का सेसी है। निश्चय छह कारक अपने आप ही में होते हैं, जैसे-मृत्तिका-:', मूढबुद्धिको मर्यावहै, अपने घट परिणाम कर्मको करता है, इसलिये आप ही कर्म ... भवति] नहीं गोलियट परिणामको सिद्ध करता है, 'इसलिये स्वयं ही करण है, अपने ...मरते, [ तस्य प्रदेके अपनेको ही सौंप देता है, इस कारण आप ही संप्रदान है। प्र "
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy