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________________ २० । २० । - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० १, गा०:१६तथा स लब्धस्वभावः सर्वज्ञः सर्वलोकपतिमहितः । ...." भूतः स्वयमेवात्मा भवति स्वयम्भूरिति निर्दिष्टः ॥ १६ ॥ . . . ..' ' अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगभावनानुभावप्रत्यस्तमितसमस्तघातिकर्मतया समुपलब्धशुद्धा- , नन्तशक्तिचित्स्वभावः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञायकस्वभावेन स्वतन्त्रत्वाग्रहीतकर्तृत्वाधिकारः, . शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मत्वं कलयन् , शुद्धानन्तशक्तिज्ञान- . विपरिणमनस्वभावेन साधकतमत्वात् करणत्वमनुबिभ्राणः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन कर्मणा समाश्रियमाणत्वात् संप्रदानत्वं दधानः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरि- .. णमनसमये पूर्वप्रवृत्तविकलज्ञानस्वभावापगमेऽपि सहजज्ञानस्वभावेन ध्रुवत्वावलम्बनादपालाभस्य भिन्नकारकनिरपेक्षत्वेनात्माधीनत्वं प्रकाशयति-तह सो लद्धसहावो यथा निश्चयरत्नत्रयलक्षणशुद्धोपयोगप्रसादात्सर्वं जानाति तथैव सः पूर्वोक्तलब्धशुद्धात्मस्वभावः सन् आदा अयमात्मा हवदि सयंभु त्ति णिहिट्ठो स्वयम्भूर्भवतीति निर्दिष्टः कथितः । किं विशिष्टो भूतः । सवण्हू सबलोगपदिमहिदो भूदो सर्वज्ञः सर्वलोकपतिमहितश्च भूतः संहोता है, तव कर्ता-कर्मादि छह कारकरूप आप ही होता हुआ स्वाधीन होता है, और किसी दूसरे कारकको नहीं चाहता है, यह कहते हैं- [तथा स आत्मा खयम्भूः भवति इति निर्दिष्टः] जैसे शुद्धोपयोगके प्रभावसे केवलज्ञानादि गुणोंको प्राप्त हुआ था, उसी प्रकार वही आत्मा 'स्वयंभू' नामवाला भी होता है, ऐसा 'जिनेन्द्रदेवने, कहा है। तात्पर्य यह है, कि जो आत्मा केवलज्ञानादि स्वाभाविक गुणोंको प्राप्त हुआ हो, उसीका नाम स्वयंभू है। क्योंकि व्याकरणकी व्युत्पत्तिसे भी जो 'स्वयं अर्थात् आप ही से अर्थात् दूसरे द्रव्यकी सहायता विना ही 'भवति' अर्थात् अपने स्वरूप होवे, इस कारण इसका नाम स्वयंभू कहा गया है, यह आत्मा अपने स्वरूपकी प्राप्तिके समय दूसरे कारककी इच्छा नहीं करता है । आप ही छह कारकरूप होकर अपनी सिद्धि करता है, क्योंकि .. आत्मामें अनंत शक्ति है, कैसा है वह [लब्धस्वभावः] प्राप्त किया है कर्मोके नाशसे अनंतज्ञानादि शक्तिरूप अपना स्वभाव जिसने ? फिर [सर्वज्ञः] तीन कालमें रहनेवाले सब पदार्थोको जाननेवाला है स्वयंभू आत्मा । [सर्वलोकपतिमहितः] तीनों भुवनोंके सम":"'' चक्रवर्ती इनकर पूजित है । फिर कैसा है ? [स्वयमेव भूत परकी सहायताके विना अपने शुद्धोपयोगके बलसे अनादि ही .... अनेक प्रकारके बन्धोंको तोड़कर निश्चयसे इस पदवीको प्राप्त हुने सुर, असुर, मनुष्योंके स्वामियोंसे पूज्य सर्वज्ञ वीतराग तीन लोक पव सहिना .. स्वयंभूपदुको प्राप्त हुआ है। और करता
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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