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________________ २२ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० १, गा० १६परेण सहात्मनः कारकत्वसम्बन्धोऽस्ति, यतः शुद्धात्मस्वभावलाभाय सामग्रीमार्गणव्यग्रतया परतंत्रैर्भूयते ॥ १६ ॥ प्यखण्डितैकचैतन्यप्रकाशेनाविनश्वरत्वादपादानं भवति । निश्चयशुद्धचैतन्यादिगुणस्वभावात्मनः खयमेवाधारत्वादधिकरणं भवतीत्यभेदषट्कारकीरूपेण खत एव परिणममाणः सन्नयमात्मा परमात्मस्वभावकेवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे यतो भिन्नकारकं नापेक्षते ततः स्वयंभूर्भवतीति भावार्थः अपनी मृत्पिड अवस्थाको छोड़ अपनी घट अवस्थाको करता है, इसलिये आप ही अपादान है। अपने में ही अपने घटपरिणामको करता है, इसलिये आप ही अधिकरण है। इस तरह ये निश्चय पट्कारक हैं, क्योंकि किसी भी दूसरे द्रव्यकी सहायता नहीं है, इस कारण अपने आपमें ही ये निश्चयकारक साधे जाते हैं । इसी प्रकार यह आत्मा संसार अवस्थामें जब शुद्धोपयोगभावरूप परिणमन करता है, उस समय किसी दूसरेकी सहायता (मदद ) न लेकर अपनी ही अनंत शुद्धचैतन्यशक्तिकर आप ही छह कारकरूप होके केवलज्ञानको पाता है, इसी अवस्थामें 'स्वयंभू' कहा जाता है। शुद्ध अनंतशक्ति तथा ज्ञायकस्वभाव होनेसे अपने आधीन होता हुआ यह आत्मा अपने शुद्ध ज्ञायकस्वभावको करता है, इसलिये आप ही कर्ता है, और जिस शुद्धज्ञायकस्वभावको करता है, वह आत्माका कर्म है, सो वह कर्म आप ही है, क्योंकि शुद्ध-अनंतशक्ति, ज्ञायक - स्वभावकर अपने आपको ही प्राप्त होती है, वहाँ यह आत्मा ही 'कर्म' है, यह आत्मा अपने शुद्ध आत्मीक परिणामकर स्वरूपको साधन करता है, वहाँपर अपने अनंतज्ञानकर 'करणकारक' होता है, यह आत्मा अपने शुद्धपरिणामोंको करता हुआ अपनेको ही देता है, उस अवस्थामें शुद्ध अनंतशक्ति ज्ञायकस्वभाव कर्मकर आपको ही स्वीकार करता हुआ 'संप्रदानकारक होता है, यह आत्मा जब शुद्ध स्वरूपको प्राप्त होता है, उस समय इस आत्माके सांसारीक अशुद्ध-क्षायोपशमिक मति आदि ज्ञानका नाश होता है, उसी अवस्थामें अपने स्वाभाविक ज्ञानस्वभावकर स्थिरपनेको धारण करता है, तब कारक होता है। यह आत्मा जब अपने शुद्धअनंतशक्ति ज्ञायकस्वभाव उस दशामें 'अधिकरणकारक'को स्वीकार करता है। इस प्रकार यह करा... पट्टकारकरूप होकर अपने शुद्ध स्वरूपको उत्पन्न (प्रगट) कपदवीको पाता है। अथवा अनादिकालसे बहुत मजबूत बँधे न पै? ॥ ५॥ (ज्ञानावरण १ दर्शनावरण २ मोहनीय ३ अन्तराय' ४) नाश क र है, दूसरेकी सहायता कुछ भी नहीं ली, इस कारण स्वयंभू कहा जा करे, कि परकी सहायतासे स्वरूपकी प्राप्ति क्यों नहीं होती ? ७. यव सहित यह आत्मा पराधीन होवे, तो आकुलता सहित होजाय, और . और करता है। - - on
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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